Tuesday, March 29, 2016


बचपन की गुल्लक से खनकते कुछ सिक्के 


बचपन हमेशा मुझे एक ऐसी गुल्लक की तरह लगता है जिसके पैसे तमाम उम्र हम खर्च करते हैं. इसके बावजूद गुल्लक के यह पैसे कभी ख़त्म नहीं होते और इसकी ख़ुशी जिंदगी भर हमें सराबोर करती है.  
   
वाकई बचपन कितना खुबसूरत और व्यापक लफ्ज़ है. इसके असली मायने बीत जाने के बाद ही पता चल पाते हैं. मुझसे अगर पूछा जाये कि मेरे लिए कायनात के सबसे सुंदर अल्फाज़ क्या हैं तो निश्चित तौर पर वे अल्फाज़ हैं- माँ और बचपन...!!

माँ ने बचपन में सिर्फ एक बार पिटाई की. वो भी इसलिए की होली के समय घर में आये पांच लीटर सरसों के तेल से चुपके से स्नान कर लिया था. हालांकि इस पर माँ को बहुत अफ़सोस हुआ था. इसके बाद माँ ने कभी किसी बात पर पिटाई की हो याद नहीं...!!

पापा के जाने के बाद माँ ने सभ्य, सुसंस्कृत और शरीफ़ बच्चा बनने के लिए सरस्वती शिशु मंदिर में दाखिल करवा दिया. लेकिन शिशु मंदिर वालों के साथ दो साल से ज्यादा अपनी निभ नहीं पायी या क्या हुआ...?? स्कूल बदल गया और अपन फैज़ाबाद चले आये. खैर...!! इसके बाद फिर 6वीं & 7वीं में सभ्य और सुसंस्कृत बनने सरस्वती विद्या मंदिर आ गए.    

वहां एक अचार जी (होते वे आचार्य जी थे लेकिन हम सभी बच्चे उन्हें अचार जी ही कहते और आज भी वे अचार जी ही हैं) थे. राजाराम यादव जी. बहुत ही हिंसक और दैत्याकार टाइप. 6 फीट हाईट और छरहरी काया के स्वामी. क्लास में उनकी इतनी दहशत कि बच्चे थरथर कांपते. और मेरे जैसे कुपोषण के शिकार व मरघिल्ले कमजोर बच्चों की पैंट भी गीली हो जाये तो कोई वांदा नहीं. अचार जी लड़कों को खासतौर से जाति सूचक शब्दों से बुलाते और याददाश्त इतनी तेज की लगभग सारे लड़कों के गाँव के नाम भी याद थे.

यादव जी बीजगणित और संस्कृत पढ़ाते थे. उनका 3सरा और 5वां घंटा (पीरियड) होता. 3सरा बीजगणित और 5वां संस्कृत. दोनों में मुझे मौत आती, लगता हे भगवान धरती फट जाये और मैं समां जाऊं. और अगर यह न हो तो भूकंप आ जाये, स्कूल ढह जाये और छुट्टी हो जाये. लेकिन होता इसका ठीक उल्टा.

सबसे ज्यादा मौत संस्कृत वाले घंटे में आती. उन्होंने पूरी क्लास को राम का रूप याद करने के लिए दिया. करीब 95% ने याद करके सुना दिया. बचे 5% जिनमें कुछ ऐसे थे जो गाहे-बगाहे स्कूल आते और कुछ ऐसे जो उस घंटे में गायब हो जाते. 2-3 ऐसे भी थे जिनके पास पिटने के सिवाय कोई चारा न था. इन पंक्तियों का ढपोरशंख लेखक इसी तीसरी श्रेणी में आता था. 

अचार जी 3सरे घंटे में जैसे ही कक्षा में दाखिल होते मेरे सर पर हथौड़े बजना चालू हो जाता. 2-4 मिनट बाद घुम-फिर कर कहते- 
उ इरनी क ठाकुर आयल हउवैं की नाय...?? और मैं छिपने की बहुत कोशिश करता वे ढूंढ ही लेते. और कहते-
चला ठाकुर खड़ा होय जा...!! आज याद कय के आयल हउवा की ना...??
मैं धीरे से कहता...जी...!!
फिर खड़ा होय जा... अउर...सुनावा...!!
मैं बड़े जोश से खड़ा होता...!! (शायद इस गुमान में कि मेरे जोश को देखकर उन्हें विश्वास हो जाये कि इसे याद हो गया अब नया पाठ शुरू करते हैं) 
तेज आवाज में पढता-    रामः  रामौ  रामाः  
इसके बाद निरंतर मेरी आवाज धीमी होती जाती
और वे मेरी धीमी होती आवाज के साथ-साथ मेरी तरफ बढ़ रहे होते.
वे धीरे से मेरे पास आकर मेरे सिर के आगे के 8-10 बाल बड़ी ही नज़ाकत के साथ पकड़ते और मुझे 90 डिग्री पर झुकाकर पूरी ताकत के साथ दो-चार घूंसे हाथ और केहुनी से मेरी पीठ पर जमाते...और अगले दिन याद करने की ताकीद के साथ आगे बढ़ जाते...और नाचीज यादव जी को 7 पीढ़ियों को याद करते हुए हाँफ कर बैठ जाता. यह सिलसिला 3-4 महीने तक चला लेकिन राजाराम यादव अचार जी इन पंक्तियों के ढपोरशंख लेखक को राम का रूप याद करवाने में कामयाब न हुए. वो  दिन और आज का दिन संस्कृत का नाम सुनते ही यादव जी के कांख कर घूंसा मारने की आवाज कानों में अब भी गूंजती है...!!

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