Tuesday, March 1, 2016

  समय से संवाद करती चुप्पी...!!



आक्रोश (1980)-:

  आज़ादी के बाद हाशिये के समाज में यह बहस तेज हो गयी कि ‘यह किसकी आज़ादी है?’ जिसमें शोषित मजदूरों, गरीब किसानों व दलित-आदिवासी जनजातियों को सामान्य ज़िंदगी मयस्सर न हो सकी? क्या उन्हें मामूली जरूरतें-सहूलियत पाने का अधिकार नहीं है? क्या इस देश के संशाधनों पर उनका हक नहीं जितना बाकी लोगों का है? मुख्यधारा के लोगों ने हाशिए पर डाल दिए गए आमजन को मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दिया। भगत सिंह ने अपने क्रांतिकारी विचारों के तहत कहा था- “क्रांति करना बहुत कठिन काम है। यह किसी एक आदमी के ताकत की वश की बात नहीं है और न ही यह किसी निश्चित तारीख को आ सकती है। यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को संभालना होता है और जनता को इसके लिए तैयार करना होता है। क्रांति के दुसाध्य कार्य के लिए सभी शक्तियों को संगठित करना होता है। इस सबके लिए क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानियां देनी होती हैं।” देश में आर्थिक विसंगतियों ने समाज में गैरबराबरी के चलते आक्रोश पैदा किया है। आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित तबके के लोग अभिशप्त ज़िंदगी के खिलाफ़ लड़ने के लिए मजबूर हैं। दलित सवर्णों के यहाँ मजदूरी करके अपना पेट पालता है और आदिवासी जनजातियां यहां के जंगल व अन्य संशाधनों पर निर्भर रहती हैं। जंगलों में रहने के कारण वे मुख्यधारा से कटे हुए हैं। छ्त्तीसगढ़, उड़ीसा (कोडापुट), तमिलनाडु (गंजम), झारखंड (बस्तर व गढ़चिरौली), बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश (मिर्ज़ापुर व चंदौली) के कुछ इलाकों में आदिवासी भारी संख्या में जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। औद्योगिक क्रांति ने इनका सबसे ज्यादा नुकसान किया है। कोयले की खदानों, पत्थर तोड़ने वाले क्रशर, विभिन्न कारखानों व फैक्टरियों के लगने से प्राकृतिक संशाधनों पर पूंजीपतियों का कब्ज़ा हो गया। विकास की हवा ने जंगलों को उजाड़ कर रख दिया है। जिससे वहाँ के लोग विस्थापित होने के लिए अभिशप्त हैं।

  किसी व्यक्ति, जाति और संप्रदाय को उनकी जड़ों से काटना विध्वंसकारी होता है। क्योंकि उनके सामने अस्मिता और पहचान का संकट खड़ा हो जाता है। आक्रोश फ़िल्म अस्मिता-विमर्श पर आधारित है। गोविंद निहलानी की यह पहली फ़िल्म है। फ़िल्म की कहानी व स्क्रिप्ट मराठी नाटककार विजय तेंदुलकर और डायलॉग सत्यदेव दूबे ने लिखा। संगीत अजीत वर्मन का है। सिनेमैटोग्राफी गोविंद निहलानी और एडिटिंग केशव नायडू ने की है। फ़िल्म 144 मिनट की है। यह फ़िल्म NFDC के सहयोग से बनायी गयी। फ़िल्म पर बात करने से पहले फ़िल्म-लेखक विजय तेंदुलकर की रचनाओं पर बात करना जरूरी है। जिससे फ़िल्म की विशेष मनःस्थिति और साइकी को समझने में आसानी होगी। तेंदुलकर के मन में मध्यवर्ग एवं राजनैतिक नेताओं के पाखंड के प्रति गहरा गुस्सा था। वे मानते थे कि ‘दोनों ही बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन उनके जीवन का आचरण ठीक उसके उलट होता है।’ उनके लिखे नाटकों और फ़िल्म की पटकथाओं में यह असर साफ़ दिखता है। कमला फ़िल्म की स्क्रिप्ट में उन्होंने पत्रकारों के दोचित्तेपन को उजागर किया। उन्होंने घासीराम कोतवाल, सखाराम बाइंडर, ख़ामोश अदालत जारी है जैसे नाटक लिखे। इन नाटकों में ज़मीन से जुड़े किरदारों की वजह से आम आदमी जुड़ाव महसूस कर पाता है। आक्रोश फ़िल्म का किरदार लाहन्या भीखू भी इस कड़ी का हिस्सा है।        

  आक्रोश एक ऐसे आदिवासी युवक लाहन्या भीखू (ओमपुरी) की कहानी है जिसे उसकी पत्नी नागी भीखू (स्मिता पाटिल) की हत्या के जुर्म में सज़ा हो जाती है। जबकि वास्तव में अपराधी वह नहीं है। तथाकथित भद्र समाज के चंद ताकतवर लोगों द्वारा उसकी पत्नी का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और लाहन्या को इसका शिकार बना दिया जाता है। लाहन्या इस पूरी व्यवस्था के षड़यंत्र से इतना नाराज है कि अपने सरकारी वकील भास्कर कुलकर्णी (नसीरुद्दीन शाह) के लगातार कुरेदने के बावजूद खामोश रहता है। लाहन्या की चुप्पी उसके अंदर के खौलते संघर्ष को बखूबी बयां करती है। उसकी ख़ामोशी एक अमूर्त भय और गुस्से दोनों को उजागर करती है। उसका वकील भास्कर कुलकर्णी उससे जब कहता है- “पहले ये बताओ कि पहला खून किया है तुमने?...या पहला जुर्म?...क्या पहले कभी हवालात आए हो?...तुमने अपनी घरवाली का खून क्यों किया?...बदचलन थी?...क्या हुआ था? इससे तुम्हारा केस मजबूत हो जायेगा।” लाहन्या के भीतर का आक्रोश इन सवालों के बावजूद नहीं फटता। भास्कर कुलकर्णी के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए वह वह एक सवाल बन चुका है। जिसका जवाब न तो इस तथाकथित सभ्य समाज के पास है और न ही इस करप्ट सिस्टम के पास। यह एक सत्य घटना पर आधारित फ़िल्म थी। कथित तौर पर महाराष्ट्र के एक स्थानीय अखबार के पृष्ठ सात पर इस सच्ची घटना पर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। यह फ़िल्म भारतीय न्यायिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार पर एक तीखा व्यंग्य थी। फ़िल्म में गोविंद निहलानी ने न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी जैसे रूपक से इसे खूबसूरत अभिव्यक्ति दी है।

  आक्रोश का एक महत्वपूर्ण दृश्य है जिसमें लाहन्या की कोर्ट में पेशी है। कोर्ट का बरामदा जहाँ उसका बूढ़ा बाप और उसकी अविवाहित बहन अपने गोद में उसके बच्चे के साथ मौजूद है। लाहन्या उन्हें शून्य दृष्टि से एकटक देखता है। पीछे से आवाज़ आती है, केस नं.612, 1979, लाहन्या भीखू हाज़िर हों। लाहन्या इजलास में आता है और पेशकार उसके पास आकर आरोप पढ़ता है- “तुमने 24 दिसंबर 1978 की रात 9 बजे और सुबह 5 बजे के बीच जान-बूझकर, पूरे होशो-हवास में अपनी पत्नी नागी भीखू का गला दबाकर उसका खून किया और जो भारतीय दंडविधान की धारा 302 के अंतर्गत दंडित अपराध है, जो सेशन अदालत की मर्यादा के अंतर्गत है। इस जुर्म के लिए तुम्हारे ऊपर इस अदालत में मुकदमा चलाया जायेगा। तुमको जुर्म कुबूल है या ना कुबूल। बोलो... भई कोर्ट को बताओ...।” लाहन्या चुप है। उसकी चुप्पी कायरता की निशानी नहीं है, बल्कि उन परिस्थितियों की देन है, जिसमें न्यायिक प्रक्रिया की अंतहीन सुनवाई उन्हीं लोगों के पक्ष में होने वाली है, जो वास्तव में अपराधी हैं। लाहन्या इस सच से बखूबी वाकिफ़ है। इसलिए उसने न्याय की उम्मीद बहुत पहले ही छोड़ दी है। इस भ्रष्ट समाज में जो ताकतवर है, शक्ति संपन्न है वही इस व्यवस्था का कर्ता-धर्ता है। राष्ट्रहित अखबार के संपादक सामंत को सच छापने और भास्कर कुलकर्णी को सच के साथ खड़े होने के लिए पीटा जाता है।

  लाहन्या निःशब्द है। चुप्पी उसका मूक विद्रोह बन गयी है। उसकी आंखें बोलती हैं और उसके प्रति हुए अन्याय का जवाब माँ  गती हैं। उसका बाप मर गया है। कोर्ट से उसे अंत्येष्टि में जाने की अनुमति मिल गयी है। वह अपने पिता की चिता के सामने खड़ा है। चिता को मुखाग्नि देता है। सामने उसकी जवान बहन खड़ी है। वह कुल्हाड़ी उठाता है और अपनी बहन के गले पर वार करता है। इसके बाद लाहन्या का गला ऐतिहासिक आक्रोश के साथ फट पड़ता है। लाहन्या की यह आक्रोश भरी चीख पूरी फ़िल्म में उसका एक मात्र संवाद है। फ़िल्मकार ने इस दृश्य के माध्यम से इशारा किया है कि लाहन्या जो अपनी बीवी के लिए नहीं कर सका, वह अपनी बहन के लिए कर देता है। भास्कर कुलकर्णी अभी तक जिन सवालों की फेहरिश्त लिए उसके सामने खड़ा था, उसे सारे जवाब इस एक चीख से मिल जाते हैं। इस घटना के बाद भास्कर अपने सीनियर वकील दुसाने के पास मदद के लिए जाता है जिससे उसे न्याय मिल सके। दुसाने उससे कहता है- ‘बचपना छोड़ो भास्कर...औरतों के साथ हमेशा यही होता है। लाहन्या जैसे लोग बात का बतंगड़ न बनायें तो बात वहीं की वहीं रफा-दफा हो जाये।’ भास्कर अपनी बातों से दुसाने को यह अहसास कराता है कि वह खुद एक आदिवासी है और उन्हें उसकी मदद करनी चाहिए। इस पर दुसाने कहता है- ‘अन्याय हो रहा है उनके साथ, एक्सप्लॉयट किया जा रहा है उन्हें, पैरों तले रौंदा जा रहा है...जानता हूँ ये सब...तो क्या बंदूक उठाकर...।’ दुसाने ने सारी परिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया है और यही वह भास्कर को भी समझाने की कोशिश करता है।

  लाहन्या का आक्रोश इस समाज में वंचितों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ उबलता हुआ प्रतिरोध है। उसकी ख़ामोशी लगातार इस ओर इशारा करती है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है। इस गलत होने को पूरा समाज मूक दर्शक होकर देख रहा होता है। लाहन्या अपनी बहन की इसलिए हत्या कर देता है ताकि वह उसे दूसरी नागी न बन सके। फ़िल्मकार ने इसके संकेत पहले ही दे दिए होते हैं। लाहन्या की बहन उसके बच्चे की देखभाल कर रही होती है। इस बीच जंगल का ठेकेदार रो रहे बच्चे को चुप कराने के लिए बिस्किट देता है। बिस्किट देते हुए देखकर लाहन्या का बाप अत्यंत क्रुद्ध नजरों से उसे घूरता है। दरअसल इसके पीछे की मंशा को भलीभांति वह पहचानता है। ये सब सामंतों व ठेकेदारों द्वारा आदिवासी गरीब महिलाओं को फुसलाने की चालें हैं।

  वास्तव में बिस्किट यहाँ तथाकथित सभ्य समाज के प्रतीक के रूप में व्यंजित हुआ है। ठीक यही घटना नागी के साथ भी घट चुकी होती है। हत्या के कुछ दिन पहले वह काम से लौटने पर नई साड़ी पहनकर आयी थी और उसके हाथ में बिस्किट का पैकेट था। अपने बाप की तरह लाहन्या भी इसे देखकर आगबबूला हो गया था। गोविंद निहलानी ने फ़िल्म में यह दिखाने की कोशिश की है कि भद्र समाज के लोग अपने स्वार्थों और हितों को साधने के लिए संगठित रूप में सामने आते हैं। इस फ़िल्म में जातीय संघर्ष के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि रूढियां और परम्पराएं जातिगत नहीं बल्कि हर स्तर पर समाज को प्रभावित करती हैं। फ़िल्मकार ने विषयवस्तु और उसके कथ्य को बखूबी पकड़ने की कोशिश की है। फ़िल्म में दिखाए गए लोकेल अपने वास्तविक अर्थों में प्रतिबिंबित होते हैं। मूक विद्रोह कितना भयानक होता है, यह भारतीय सिनेमा में अन्यत्र दुर्लभ है। फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफी, संपादन और संगीत उसकी गत्यात्मकता में उत्सुकता और गंभीर दृष्टिबोध की हद तक सहज है। आक्रोश फ़िल्म का मुख्य किरदार लाहन्या अतिसामान्य आम इंसान है। वह फ़िल्म में मुख्यधारा फिल्मों जैसे ‘एंग्री यंग मैन’ की किसी हीरो जैसी छवि का निर्माण नहीं करता। बल्कि अपने बाह्य और मानसिक संघर्ष को वास्तविक ज़िंदगी में जैसे होता है,  वैसे ही लड़ता है। आक्रोश फ़िल्म एक व्यक्तिगत लड़ाई को सामाजिक स्तर पर व्यापक आयाम देती है। फ़िल्म का यह परिदृश्य भारतीय समाज का अत्यंत काला (dark) पक्ष प्रदर्शित करता है। यह परिदृश्य भुवनशोम, सारा आकाश और उसकी रोटी जैसी फिल्मों के यथार्थ से बिल्कुल अलग है। जिसकी तरफ भारतीय सिनेमा की नजर अभी तक नहीं पड़ी थी। नया सिनेमा के अंतर्गत ऐसी फ़िल्में जीवन की बहुस्तरीयता को व्याख्यायित करती हैं। शायद यही वजह है कि ये फ़िल्में अपने यथार्थवादी सरोकारों के साथ दर्शक के सामने वाजिब सवाल खड़े करती हैं और उनसे गहराई से अपना रिश्ता कायम कर पाती हैं। इन फिल्मों की वजह से ही नया सिनेमा एक अखिल भारतीय आंदोलन का स्वरूप अख्तियार कर सका। राजनैतिक सिनेमा के अंतर्गत अगली कड़ी में सामंतवादी शोषण के खिलाफ़ दामुल सशक्त प्रतिरोध दर्ज करने वाली एक राजनैतिक-यथार्थवादी फ़िल्म है।


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