Wednesday, June 3, 2020

सिनेमा में स्क्रिप्ट सबसे अहम चीज़ है मेरे लिए

किसी फिल्म (शूल) का मुख्य किरदार (मनोज वाजपेयी) आपसे कहे कि फला किरदार (समर प्रताप सिंह) को निभाते समय अवसाद के कारण मुझे मनोचिकित्सक के पास जाना पड़ा, तो आप कैसा महसूस करेंगे? सबसे पहले हमारा ध्यान उस किरदार की तरफ जाएगा और फिल्म के संवाद हमारे जेहन में कौंधने लगते हैं। जहनी तौर पर मैं ‘शूल’ के एक संवाद की याद दिलाना चाहूंगा कि कैसे एक व्यक्ति के अंदर व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध पनपता है और वह अपनी जिंदगी तिल-तिल जीने के लिए मजबूर हो जाता है।




मंजरी (रवीना टंडन)

 इतनी ही भड़ास निकालनी थी तो जान से क्यूं नहीं मार देते बच्चू यादव को?’

समर प्रताप सिंह (मनोज वाजपेयी) 

क्यूंकि डरते हैं हम। आज जिंदगी में पहली बार डर लगा है हमें। 

हम जाके गोली मार देंगे, चढ़ जाएंगे फांसी।

 हमको मरने से डर नहीं लगता है,

 लेकिन डरते हैं आपके लिए। साला गधा थे, 

जो पुलिस में आये और आके शादी कर ली। 

अगर आप हमारी जिंदगी में नहीं होतीं न मंजरी जी,

 तो वो साला भड़वा बच्चू यादव 

आज 10 फुट जमीन के नीचे गड़ा होता।’






‘शूल’ में मनोज वाजपेयी के अभिनय से भला कौन दर्शक मुतास्सिर नहीं हुआ होगा और किसके मस्तिष्क में शूल की चुभन नहीं पैठी होगी। चार्ली चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वे पहले नाटकों में काम करते थे और काम के दौरान उनके किरदारों की छाप वास्तविक जीवन को भी गहरे स्तर पर प्रभावित करती थी। जिसे नहीं करती, वह कलाकार नहीं है।


18 अक्‍टूबर की शाम जेएनयू में मनोज वाजपेयी इन्‍हीं शब्दों के साथ हमसे रूबरू हो रहे थे। बिहार और उत्तर प्रदेश के यूथ अपने हीरो से मिलने के लिए बेताब नजर आ रहे थे और उन्हें बतौर हिंदी सिनेमा के चरित्र अभिनेता नहीं बल्कि बिहारी हीरो के रूप में ज्यादा तवज्जो दी जा रही थी। मजे की बात यह कि मनोज वाजपेयी को जेएनयू से कुछ इस कदर जोड़ा जा रहा था कि इनके भाई ने यहीं से पढ़ाई की और उन दिनों मनोज उनसे मिलने आया करते थे। गंगा ढाबा व गोदावरी ढाबा पर बैठकें हुआ करती थीं। पुराने दिनों की यादें ताजा करते हुए मनोज वाजपेयी ने बताया कि खालीपन के दिनों में वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाले अपने दोस्तों के साथ मुखर्जी नगर में रहते थे और यहीं से थियेटर की शुरुआत की। मनोज वाजपेयी और शाहरुख ने साथ-साथ बैरी जॉन का स्कूल ज्वाइन किया। लेकिन बैरी जॉन के स्कूल से निकल कर शाहरुख जहां न्यू इकनॉमिक पॉलिसी के बाद के भारत में एलीट क्लास और इंडियन यूथ का आइकॉन बन गये, ग्लोबलाइज्ड मार्केट में शाहरूख, कोक और सेक्स बिकने लगा..। इसके बरक्स मनोज बाजपेयी की छवि रफ, बेसिक अनुभूतियों वाले कलाकार व हार्डकोर एक्टर की बनी, न कि खांटी इंटरटेनर की।


कहानी और कंटेंट पर बातचीत करते हुए मनोज वाजपेयी ने बताया कि वे स्क्रिप्ट पर सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। स्क्रिप्ट के आधार पर ही वे फिल्मों का चुनाव करते हैं। अपनी पहली फिल्म (बैंडिट क्वीन, 1994) करते हुए एक नये अनुभव से गुजरना उन्हें बहुत ही दिलचस्प लगता है। शूटिंग के दौरान शेखर कपूर उनसे कहते हैं कि ‘तुम जो करना चाहते हो वह करो, और यह भूल जाओ कि स्क्रीन पर कैसे दिखोगे’। हिंदी सिनेमा की मार्केट पालिसी के बारे में बात होने पर वे मानते हैं कि हमें प्रोड्यूसर का भी ध्यान रखना होगा, जिसने फिल्म पर पैसे लगाये हैं और फिल्म वितरकों के जेहन का भी ख्याल रखना होगा, जो हमारी फिल्म को उत्पाद बनाकर मार्केट में उतारेगा। इन सारी बातों से सामंजस्य बिठाकर ही हम आज के सिनेमा को खाद-पानी दे सकते हैं। भोजपुरी सिनेमा के प्रश्न पर मनोज ने अपनी चिंता जतायी कि आज ऐसी फिल्में कंटेंट और स्पेस के स्तर पर दिवालियेपन की स्थिति में हैं। भोजपुरी फिल्मों में बेहतरीन स्क्रिप्ट का अभाव है, इसलिए बतौर अभिनेता वे ऐसी फिल्मों से दूर हैं।


हिंदी सिनेमा में कमोबेश बिहार की गरीबी और राजनीति को प्रोजेक्ट किया जाता है, जबकि ऐसा केवल इसलिए होता है कि एक फिल्मकार इस प्रदेश की संवेदनशीलता को भुना कर पैसे बनाने को केंद्र में रखता है, जेएनयू की यूथ के ऐसे सवालों से भी मनोज वाजपेयी को इत्तेफाक रखना पड़ा। बिहार एक पोलेटिकली साउंड स्टेट है, क्या आप भविष्य में राजनीति में कदम रख सकते हैं – इस पर मनोज वाजपेयी का मानना था कि भविष्य में क्या होगा, यह हम नहीं जानते, लेकिन अभी तो फिलहाल कोई इरादा नहीं है राजनीति में जाने का। जेएनयू की उत्तर भारतीय जनता से ऐसे प्रश्न भी सुनने को मिले कि ‘क्या मैं आपकी तरह हीरो बन सकता हूं?’



बकौल मनोज वाजपेयी असल जिंदगी में वे भी एक आम इंसान की तरह हैं। सामाजिक, राजनीतिक और सांस्‍कृतिक तीनों ही स्‍तर पर सभी किस्‍म के संघर्ष के बीच एक अभिनेता के स्तर पर वे खुद को अनगिनत किरदारों के लिए तैयार करते हैं। समानांतर सिनेमा आंदोलन के बीते दौर के साथ हमें यह मानने से कतई इनकार नहीं करना चाहिए कि मनोज बाजपेयी वर्तमान समय के अलहदा कलावादी सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर हैं, जिनमें अपने समय की पीड़ा भी है और अपने समय के सच को उजागर करने की असीम संभावनाएं भी। बहरहाल जगजीत सिंह के चंद हर्फों ‘कोई दोस्त है न रकीब है तेरा शहर कितना अजीब है’ के साथ मनोज बाजपेयी की आने वाली फिल्म ‘चिटगांव’ के इंतजार में...!!


(JNU में 2011 की एक ख़ूबसूरत सिंदूरी शाम) 

'इरफ़ान और मैं': विशाल भारद्वाज

इरफ़ान हम सब के, हम सबके यानी पूरे देश के चहेते अभिनेता थे। इतनी बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री में इरफ़ान मेरे एकमात्र पसंदीदा अभिनेता हैं। एक लंबी बीमारी के बाद उनका जाना हम कभी भूल नहीं पायेंगे। इरफ़ान ने तक़रीबन 18 साल बंबई में स्ट्रगल किया। वो पहले विदेशों में एक अभिनेता के तौर पर चमके उसके बाद भारत में उनके किरदार को पहचान मिली। इरफ़ान को भारतीय सिनेमा में जो क़द विशाल भारद्वाज ने दिया इरफ़ान हमेशा से उसके मोहताज थे। विशाल भारद्वाज ने उन्हें सही मायने में उनके असली मुक़ाम पर पहुँचाने का काम किया। विशाल साब ने यह इरफ़ान के लिए नहीं बल्कि भारतीय सिनेमा और हम सबके लिए एक अभूतपूर्व काम किया। सबने उन्हें अपने अपने तरीक़े से याद किया। विशाल साब ने भी इरफ़ान को याद किया है। याद क्या किया है विशाल साब ने इस शॉर्ट स्क्रीनप्ले के जरिये कलेजा निकालकर दिया है ---    
इरफ़ान. 29 अप्रैल को चले गए.
सब स्तब्ध.
अज़ीज़, दोस्त, अपने. सब.
उनमें से एक, विशाल भारद्वाज.
फ़िल्म राइटर, डायरेक्टर. जिन्होंने इरफ़ान के साथ मक़बूल, हैदर, सात ख़ून माफ बनाई. एक और फ़िल्म पर काम शुरू कर रहे थे. कि वे बीमार हो गए. इलाज के लिए जाना पड़ा.
लेकिन वो रिकवरी पूरी कभी न हो सकी.
उस बुधवार को जब ख़बर आई तो विशाल ने ट्वीट किया. जिसे पढ़कर बेचैनी हो गई.
उन्होने लिखा –
“देखी ज़माने की यारी
बिछड़े सभी बारी बारी
फिर मिलेंगे इरफ़ान साब.”
इस फोटो के साथ. जिसे घंटों निहारा जा सकता है.
“पल भर की खुशियां हैं सारी..” (Photo: Vishal Bhardwaj)
इसके कोई 13 दिन बाद विशाल ने फिर लिखा. ऐसा लिखा कि और भी ज़्यादा बेचैनी हुई. एक स्क्रीनप्ले. जिसका टाइटल – “Irrfan and I / इरफ़ान और मैं.”
इसके बारे में उन्होंने कहा – “अपने और इरफ़ान के रिश्ते को लेकर, मेरे पास कहने को बहुत कुछ है. इसके बारे में मैं कोई आर्टिकल लिख सकता था, या कोई ब्लॉग लिखता, लेकिन मैंने एक शॉर्ट स्क्रीनप्ले लिखने का फैसला किया. जिसमें इरफ़ान और मैं, दो किरदार हैं. इसमें मैंने हमारे प्रोफेशनल मूमेंट्स के बजाय, निजी पलों को साझा करने की कोशिश की है.”
उन्होंने कहा – “हमारा क्रिएटिव अलाइनमेंट इतना परफेक्ट था कि कोई भी दूसरा एक्टर कभी मेरी लाइफ में उस जगह को नहीं ले पाएगा. मैं उन्हें हमेशा मिस करूंगा.”
मूलतः अंग्रेज़ी में लिखा गया ये स्क्रीनप्ले, विशाल भारद्वाज की अनुमति और उनके सहयोग से हम हिंदी में दी लल्लनटॉप पर ख़ास प्रस्तुत कर रहे हैं. 18 पन्नों का है. यहां text form में पढ़वा रहे हैं. इस हिंदी वर्जन में भी विशाल का ही हाथ लगा है।
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‘ इरफ़ान और मैं '
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इंटीरियर. मेरा घर – दिन का वक़्त
सुपरः 29 अप्रैल, 2020
मुंबई में अभी लॉकडाउन है. पिछले एक महीने से, मैं घर से ही काम कर रहा हूं. मेरा फ़ोन बजता है. स्क्रीन पर एम.पी का नाम चमक रहा है. मेरे शरीर में कंपकंपी दौड़ जाती है. एम.पी इरफ़ान की एजेंसी में मेरा भेदिया है. डर से भरा मैं, कुछ देर फ़ोन को बजने देता हूं और फिर किसी बुरी ख़बर के अंदेशे से कॉल उठाता हूं.
एक ठहराव.
                         एम.पी.
उसने इम्प्रूव करना शुरू कर दिया है. यार, ये बंदा तो ग़ज़ब
का फाइटर है. डॉक्टरों की उम्मीद फिर बँध गयी है कि वो
पलट आएगा..
मैं लंबी सांस लेकर कॉल काट देता हूं.
ज़रा देर बाद
मैं रेखा से बहस कर रहा हूँ कि उसने गई रात डिनर में मुझे पनीर कम दिया था. मैं शिकायत करता हूं, कि जब बात मेरे और आसमान के बीच किसी एक को चुनने की आती है तो वो पक्षपाती है.
मेरा फ़ोन बीप करता है. मैं अपना वॉट्सएप मैसेंजर देखता हूं (रेखा से अभी भी तकरार जारी है). अमेरिका से मेरे एक दोस्त का मैसेज है. लिखा है – ‘इरफ़ान ख़ान के बारे में सुनकर बहुत दुख हुआ.’ मैसेज की असलियत जानने के लिए मैं ट्विटर चैक करता हूं (अभी भी रेखा से तीखी बहस जारी है). वहाँ ऐसी कोई ख़बर नहीं है . और मैं इस बात की संभावना को ख़ारिज कर देता हूं.
मेरा ध्यान अब रेखा की बात पर है, जो वो भीगी आंखों के साथ कह रही है.
                       रेखा
ये किस तरह का ओछापन है भला?
फ़ोन की घंटी फिर बजती है. दोबारा एम.पी का कॉल है. मैं इस बार फ़ुर्ती से फ़ोन उठाता हूं.
दूसरी तरफ सुबकियाँ और सिसकियाँ हैं.
सीने की तहों में एक धमाका गूँज उठता है .
कट टू:
एक्सटीरियर. क़ब्रिस्तान को जाती सड़क – दिन
चेहरे पर एन 95 मास्क पहने और सर्जिकल ग्लव्ज़ हथेलियों पे चढ़ाए , मैं क़ब्रिस्तान की तरफ जाती एक सुनसान सड़क पर अपनी कार में ट्रैवल कर रहा हूं.
सूनी आँखों में खिड़की के बाहर का हर मंज़र धुंधला पड़ रहा है , कुछ भी फोकस में नहीं है.
डिज़ॉल्व टूः
एक्सटीरियर. क्रिकेट ग्राउंड – सुबह
सुपरः 1994 की सर्दियां, मुंबई (तब बॉम्बे)
मैं क्रिकेट के नेट्स पर इरफ़ान से मिलता हूं.
                          मैं
इस इतवार एक मैच खेलना चाहेंगे?
वो धीमे से मुस्कराते हैं और जब उनकी गर्दन ज़रा सी दाएं झुकती है तो स्लो मोशन में अपनी पलकें झपकाते हुए कहते हैं.
                          इरफ़ान
मुझे मैच खेलना पसंद नहीं विशाल साब. मुझे सिर्फ़ प्रैक्टिस
करने में मज़ा आता है.
मैं खिसिया कर मुस्कुरा देता हूँ.
जंप कट टूः
एक्सटीरियर. ज़ैना कदल पुल डाउन टाउन, श्रीनगर – दिन
सुपरः फरवरी 2014
सुरक्षा बलों की सलाह के ख़िलाफ़ , हम श्रीनगर के इस कुख्यात हिस्से में, एक पुल पर शूटिंग कर रहे हैं.
एक वक्त के बाद भीड़ को क़ाबू करना मुश्किल हो जाता है.
सुरक्षा बल अब सब्र खो रहे हैं. वो शूटिंग रोक कर इरफ़ान को कार की तरफ़ ले जाते हैं. जो नौजवान इरफ़ान के साथ सेल्फी लेने के लिए काफ़ी वक्त से खड़े थे उन्हें तितर बितर कर दिया जाता है.
इरफ़ान एक कार में वापस लौट रहे हैं. एक लड़का कार के स्कवैयर लेग वाली दिशा की गली से दौड़ता हुआ आता है. इरफ़ान को रन आउट करने के लिए, वो कंधे को पीछे मोड़कर, किसी पेशेवर क्रिकेटर की तरह, कार की तरफ एक पत्थर फेंकता है. कार का विंड स्क्रीन टूटकर टुकड़ों में बिखर जाता है. सिक्योरिटी गार्ड घबराहट में एल.एम.जी. से उस लड़के पर गोली चलाना चाहता है. ऐन मौक़े पर इरफ़ान उसे रोक लेते हैं.
कट टूः
इंटीरियर. दाचीगाम फॉरेस्ट, श्रीनगर – कुछ देर बाद
दूसरी लोकेशन पर मैं इरफ़ान से मिलने वाला हूँ. मुझे उमीद है कि वो नाराज़ होंगे मगर वो तो मुस्कुरा रहे हैं.
                          इरफ़ान
विशाल साब, क्या थ्रो मारा साले ने.. ऐसा हसीन कि
जॉन्टी रोड्स याद आ गया.
हम सबके बीच हँसी एक फ़व्वारा सा छूट पड़ता है.



कट टूः
इंटीरियर. श्रीनगर, पापा 2 – ‘हैदर’ का सेट – दिन
एक बड़े महल की कालकोठरी में क़ैदियों की जेल का सेट.
इरफ़ान, एक अधफटे स्लेटी फिरन में, लंबे बिखरे बालों के साथ, अपनी जगह पर बैठे हैं.
उनकी मोटी बड़ी आंखें दीवार पर बैठे एक कीड़े पर जमी हुई हैं. वो पूरी तरह अपने किरदार में डूबे हैं.
शॉट की तैयारी करते हुए हम सब आपस में फुसफुसाकर बात कर रहे हैं .
कट टूः
एक्सटीरियर. क़ब्रिस्तान को जाती सड़क – दिन
मेरी कार क़ब्रिस्तान पहुँच गयी है . मैं नीचे उतरकर पुलिस बैरीकेड की तरफ बढ़ता हूं. मीडिया पीछे है , एम.पी बैरीकेड के पास मेरा इंतजार कर रहा है. वो मुझे क़ब्रिस्तान की तरफ ले जाता है.
कट टूः
एक्स./इंटी. क़ब्रिस्तान के अंदर बाथरूम – जारी
मास्क और रुमालों से ढके हुए चेहरों से गुजरता हुआ, मैं एक कमरे के सामने पहुंचता हूं. वहाँ एक बोर्ड टंगा है, जिस पर लिखा है – “यहां बॉडी के नहाने का इंतेजान है”.
मेरा ध्यान ‘इंतेज़ाम’ शब्द पर जाता है जो यहां ग़लत लिखा हुआ है.
ये जगह, दफ़नाने से पहले जिस्म को नहलाने के लिए है.
मैं भारी क़दमों से आगे बढ़कर अंदर चला जाता हूं.
कमरे में एक प्लेटफॉर्म है. इरफ़ान उसके ऊपर हैं, एक सफेद चादर में कसकर लपेटे हुए, उनका सिर मेरी तरफ है.
मैं उन्हें देखने के लिए आगे बढ़ता हूं.
मेरी आँख अब उनके चेहरे पर गढ़ी है . वक़्त थमा है.
उनकी पलकें कितनी भारी हैं.
इरफ़ान की आवाज़ में एक लोरी मेरे सिर में गूंजने लगती है.
                          इरफ़ान (सिर्फ़ आवाज़ )
आ जा री निंदो तू आ जा..
इफू की आंखों में..
कट टूः
इंटीरियर. मेरा ऑफिस – दिन
सुपरः अगस्त 2018
लोरी मेरे फ़ोन पर एक वॉट्सएप मैसेज में गूंज रही है. ये मैसेज इरफ़ान का है जो उन्होंने लंदन के एक अस्पताल से मुझे भेजा है. वहाँ उनके कैंसर का इलाज चल रहा है.
                          इरफ़ान की आवाज़ (फ़ोन पर)
(गाते हुए)
आ जा री निंदो तू आ जा..
इफू की आंखों में..
(फिर वो नींद का जवाब गाते हैं)
आती हूं भई मैं आती हूं
इफू की आंखों में..
गाना ख़त्म करके, वो अपनी दबी हुई हंसी के ख़ास अन्दाज़ में बोलते हैं.
                          इरफ़ान
विशाल साब अब आपको एक्टिंग के साथ मेरा गाना भी
झेलना पड़ेगा ..
उनके लंदन जाने के बाद, मैं पहली बार उनकी आवाज़ सुन रहा हूं. मैसेज का जवाब टाइप करते हुए, मेरी आंखें पानी की झिल्ली से ढकी जा रही हैं.
                          मैं (वॉट्सएप मैसेज)
एक हफ्ते में लंदन आ रहा हूं.
वो वापस जवाब देते हैं.
                            इरफ़ान
मेरे लिए कुछ वक़्त रखना.
मेरे मुंह पर चौड़ी सी मुस्कान आ जाती है.
कट टूः
एक्सटीरियर. लंदन में एक पार्क – दिन
ऊंचे गहरे हरे पेड़ों से ढकी हुई एक लेन से होता हुआ, मैं पार्क की जानिब बढ़ रहा हूँ. मैं बेक़रार हूँ.
चलते चलते मैं एक खुले मैदान के किनारे पे पहुँच गया हूँ. इतवार का दिन है. चारों तरफ़ बच्चे अपने माँ बाप के साथ खेल रहे हैं. कई जोड़ों ने पार्क के कोने घेर रक्खे हैं.
मैं उन्हें तलाश रहा हूं.. और वो रहे इरफ़ान, मैदान के दूसरे सिरे पर , मेरी तरफ हाथ हिलाते हुए.
ज़रा देर बाद
हम एक बड़े से पेड़ के नीचे बैठे हैं. वो कॉफी की चुस्कियां ले रहे हैं जो उन्होंने कुछ देर पहले, पास ही के एक कैफ़े से ख़रीदी थी.
हम दोनों के बीच एक लंबा गहरा सन्नाटा झूल रहा है.
                          इरफ़ान
बहोत हल्का लगने लगा है विशाल साब. ऐसा लगता है जैसे
बदन के उप्पर से सैकड़ों बदन उतर गए हों.. रूह पर कितने
बोझ लेकर घूमते हैं हम लोग.. एक बार ज़िंदगी की मियाद
तय हो जाए, तो इक धुंध सी छंट जाती है आंखों से..
जैसे बारिश के बाद धूप में सब चमकने लगता है ना.. सब
वैसा.. नहाया धोया सा हो जाता
तभी अचानक एक कबूतर, ठीक हम दोनों के बीच में आकर गिरता है. चौंक कर हम दोनों कबूतर को देखने के लिए झुकते हैं.



कबूतर की गर्दन घूमी हुई है, वो साँस नहीं ले पा रहा है.
                          इरफ़ान
                       ये मर रहा है.
वो पास ही एक नल की तरफ दौड़ते हैं, अपने कप से कॉफी फेंक कर, उसमें थोड़ा पानी भर लेते हैं.
वापस दौड़कर, वो मरते हुए कबूतर की चोंच में कुछ बूंदें डालने की कोशिश करते हैं.
थोड़ी देर बाद
फिर एक चुप्पी, इरफ़ान और मैं , और पास ही बेजान कबूतर. इरफ़ान, अपनी ख़ास अंदाज़ वाली हंसी के साथ ख़ामोशी तोड़ते हैं.
                          इरफ़ान
ज़िंदगी , फ़िल्मों से ज़्यादा मैलोड्रमैटिक है. अब अगर ये पल
किसी फिल्म में डाल दें, तो कितना मैलोड्रमैटिक लगेगा..
मैं उदासी के साथ मुस्कुराता हूं.
                          इरफ़ान (जारी)
अब आप इसे और ड्रमैटिक मत बनाइए और एक तस्वीर
खींचिए मेरी, कबूतर के साथ.. एक उड़ गया और एक का
उड़ना बाकी है..
वो अपने सस्ते लतीफ़े पर ज़ोर से हंसते हैं.
कट टूः
इंटीरियर. क़ब्रिस्तान के अंदर का बाथरूम – दिन
आंसुओं से मेरा एन 95 मास्क पूरा गीला है. मैं उनके पुरसुकून चेहरे को देखते हुए अपनी जगह जड़ हूँ.
मैं चिल्ला कर रोना चाहता हूं. लेकिन नहीं रो सकता. मेरा गला घुट रहा है.
मैं चीख़ती हुई रुलाई को दबाने की कोशिश करता हूँ , और एक मौंटाज, आवाज़ और इमेज में बेढंग और बिगड़ा, मेरे दिमाग़ के पर्दे पर चलने लगता है.
इस मौंटाज में दृश्यों के रंग मेरे सिर में ऐसे चुभ रहे हैं जैसे कि फ़िल्म का कोई बिना ग्रेड किया हुआ रश प्रिंट हो.
इंटी/एक्स. अलग-अलग फिल्मों से मोंटाज – दिन/रात
– इरफ़ान पिस्तौल से तब्बू के आंसू पोंछ रहे हैं.
– बर्फीले जंगलों की रात- इरफ़ान सूफ़ी दरवेशों की तरह घूम रहे हैं और पीसी (प्रियंका चोपड़ा) उनके पीछे है, एक भँवर की तरह.
– इरफ़ान लेंस में झुक कर बुदबुदाते हैं.
                         इरफ़ान
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
– इरफ़ान और तब्बू एक दूसरे की बाँहों में बिलख रहे हैं.
                          तब्बू
हमारा इश्क़ तो पाक था न मियां?
– इरफ़ान, निशात बाग़ श्रीनगर, में स्टेज पर एक शायर के लिबास में.
                          इरफ़ान
इक बार तो यूं होगा थोड़ा सा सुकूँ होगा
– इरफ़ान अस्पताल के दरवाजे में, एक छोटी सी शीशे की खिड़की से देखते हैं. समीरा और गुड्डू उनके बच्चे के साथ खेल रहे हैं. वो अपना चेहरा वापस खींच लेते हैं मगर पसीने की एक बूंद शीशे पर छूट जाती है. वो बूँद शीशे पर उप्पर से नीचे की ओर सफ़र कर रही है और इरफ़ान की आँखों में नफ़रत, शुक्रगुज़ारी की ओर.
– बर्फ से भरे एक फ्रेम में, एक क्रीम कलर का फ़िरन पहने इरफ़ान ऑउट ऑफ फोकस से इन फोकस में आते हैं . उनके चश्मे पर बर्फ का एक छोटा सा पुलिंदा है. वो उसे अपने हाथ से साफ करते हैं.
परदे पर एक टाइटल उभरता है – “इंटरवल.”
कट टूः
एक्सटीरियर. सनी सुपर साउंड – दिन
सुपरः सितंबर 2014
‘हैदर’ की पहली स्क्रीनिंग.
इरफ़ान इंटरवल में मुझे ढूंढ़ते हुए बाहर आए हैं. मैं एक कोने में छुपकर सिगरेट पी रहा हूँ.
                          इरफ़ान
               मैं हैरान हूं विशाल साब.
                           मैं
                    (फ़िक्रमंदी से)
               क्या हुआ इरफ़ान साब?
                         इरफ़ान
ऐसी एंट्री देनी थी फ़िल्म में, तो फिर पैसे क्यों दिए?
वो हंसते हुए मुझे ज़ोर से गले लगा लेते हैं.
                        इरफ़ान
                    (फुसफुसाकर)
                    थैंक यू सो मच.
मैं उनकी झप्पी को और कस देता हूं.
कट टूः
एक्सटीरियर. चार दुकान – लंढोर, मसूरी – शाम
सुपरः दिसंबर 2007
मैं, भारी कोहरे में डूबे एक चर्च की सीढ़ियों पर बैठा हुआ हूँ. मेरे हाथ में फ़ोन है जिसके स्पीकर पर, दूसरी तरफ घंटी बज रही है. जैसे ही कोई कॉल उठाता है , मैं लाइन काट देता हूं.
कुछ ही सैकंड्स में मेरे फ़ोन पर घंटी बजती है. लंबी सांस लेकर मैं फ़ोन उठाने का फ़ैसला करता हूँ.
                          इरफ़ान
                         (फ़ोन पर)
ग़लती से लगा था या जानबूझकर काटा..
मैं मुस्कुराती हुई आवाज़ में जवाब देता हूं.
                         मैं
                        दोनों..
                        इरफ़ान
कब तक गुस्सा रहेंगे इश्क़िया के लिए? फ़िल्म भी हिट हो गई
है और डायरेक्टर भी.. अब तो मान जाइए..
                         मैं
              आप मना लीजिए..
इरफ़ान
कैसे?
                         मैं
एक फ़िल्म बना रहा हूं..
                        इरफ़ान
सात ख़ून माफ़?
                        मैं
जी.. उसमें एक हस्बैंड का रोल है.. सबने मना कर दिया है
करने से..
वो बात पूरी होने से पहले ही काट कर बोलते हैं
                       इरफ़ान
मुझे छोड़कर..
मैं मुस्कुराते हुए सिर हिलाता हूं.
                        मैं
आप बहोत अजीब हैं इरफ़ान साब!
वो एक दबी हंसी में जवाब देते हैं.
                        इरफ़ान
सच?
कट टूः 
इंटीरियर. पैरिस एयरपोर्ट – दिन
सुपरः अक्टूबर 2003
हम दोनों पैरिस के एयरपोर्ट पर हैं, हमें माराकेश को जाने वाली कनेक्टिंग फ्लाइट का इंतज़ार है.
वहां पर फ़िल्म फेस्टिवल में ‘मक़बूल’ का प्रीमियर होने वाला है.
                          इरफ़ान
सिगरेट पीएंगे?
                          मैं
स्मोकिंग ज़ोन नहीं है यहां..
                         इरफ़ान
(एक नकली यूरोपियन लहजे में )
वॉट?
वो एक सिगरेट बाहर निकाल कर तंबाकू सूंघते हैं.
                        इरफ़ान
लाइट है आपके पास?
                         मैं
नहीं..
                        इरफ़ान
मेरे पास है..
वो अपने बेल्ट की बकल के नीचे से एक लाइटर निकालकर मुझे दिखाते हैं.
                       इरफ़ान (जारी)
यहां तो लाइटर के साथ ट्रैवल करना अलाउड है पर अपने
यहां फिंकवा देते हैं, साले सिक्योरिटी
वाले.. इसीलिए मैं बेल्ट में छुपा कर चलता हूं..
                         मैं
मेटल डिटेक्टर?
                        इरफ़ान
मैं बकल दिखा देता हूं.. मोस्टली तो सब मान जाते हैं..
                        इरफ़ान
पर अगर कोई बकल चैक करने के लिए बेल्ट पर हाथ लगाता
है तो मैं गुदगुदी की ऐसी एक्टिंग करता हूं कि वो भी हंसने
लगता है..
वो खड़े होते हैं और अपना शरीर हिलाकर गुदगुदी की ऐसी ऐक्टिंग करके दिखाते हैं कि मेरी हंसी फूट पड़ती है. मगर अगले ही पल मेरी हंसी ग़ायब भी हो जाती है – इरफ़ान ने सिगरेट जला ली है.
मैं अचम्भे से उन्हें देखता हूँ, वो इत्मीनान से कश लगा रहे हैं. थोड़ी ही देर में एक सिक्योरिटी ऑफ़िसर हमारी तरफ बढ़ता है. इरफ़ान आधी सिगरेट पी चुके हैं.
                         सिक्योरिटी मैन
सर, यहां पर स्मोकिंग करना अलाउड नहीं है.
इरफ़ान ऐसे एक्टिंग करते हैं जैसे उन्हें अंग्रेज़ी के बस कुछेक शब्द ही समझ आते हैं.
                          इरफ़ान
वॉट?
                          सिक्योरिटी मैन
स्मोकिंग!!
इरफ़ान एक कश खींचकर मासूमियत से जवाब देते हैं.
                          इरफ़ान
या.. स्मोकिंग..
और वो उसे भी एक कश ऑफर करते हैं.
                        सिक्योरिटी मैन
नहीं, नहीं.. यहां पर इसकी इजाज़त नहीं है.
                         इरफ़ान
(एक और कश लेते हुए)
वॉट?
अब तक वो सिक्योरिटी ऑफ़िसर परेशान हो चुका है. वो अपनी अंगुली के इशारे से कहता है – ‘नहीं.’
                        इरफ़ान (जारी)
ओह!!
(मेरी तरफ देखते हैं)
नो.. स्मोकिंग..
मैं डर भी रहा हूँ और मुस्कुरा भी रहा हूँ. इरफ़ान पलटकर उसकी तरफ देखते हुए आख़िरी कश लेते हैं.
                        इरफ़ान (जारी)
सॉरी ब्रदर.
सिक्योरिटी ऑफ़िसर खीजकर अपना सिर हिलाता है और इरफ़ान पास ही एक डस्टबिन में सिगरेट बुझा देते हैं.
कट टूः
इंटीरियर. मेरा ऑफिस – मेक अप रूम – दिन
सुपरः जनवरी 2017
इरफ़ान मेरे ऑफिस के मेक अप रूम में बैठे हैं, सामने आईना है और लाइट्स उनके चेहरे पर पड़ रही हैं. मेक अप डिज़ाइनर उनके माथे पर एक चोट का निशान बनाने पर काम कर रहा है.



ये फ़िल्म में एक गैंगस्टर के किरदार के लिए है जो मैं उनके और दीपिका पादुकोण के साथ बना रहा हूं.
                          इरफ़ान
मज़ाक नहीं कर रहा हूं.. जब तक आप 7 ख़ून माफ़ में मेरी
कहानी का पूरा एडिट नहीं डालते यूट्यूब पर.. मैं शूटिंग पे
नहीं आऊंगा..
                          मैं
एडिट मिल नहीं रहा है इरफ़ान साहब.. सब खोजने में लगे हैं..
                          इरफ़ान
खोज लीजिए.. वरना फिर मुझे खोजते रहिएगा..
डिज़ॉल्व टूः
इंटीरियर. क़ब्रिस्तान के अंदर बाथरूम में – दिन
सुतपा (इरफ़ान की बीवी) कमरे में क़दम रखती हैं. उनका मुंह, उनके दुपट्टे से ढका हुआ है. मुझे अभी भी वहां खड़ा देखकर वो तुरंत मुड़ जाती हैं.
मैं असमंजस में हूं कि मैंने बहुत लंबा वक़्त ले लिया है या फिर वक़्त खिंचकर लम्बा हो गया है.
मझे एहसास होता है कि और कई लोग हैं, जिन्हें आख़िरी बार उनका चेहरा देखना है. लिहाज़ा मैं कमरे के बाहर आ जाता हूँ.
सुतपा अपने दोनों बेटों के साथ मुंडेर पर बैठी हैं. तीनों खोए-खोए और हारे हुए लग रहे हैं.
मैं एक दोस्त और साथी फ़िल्मकार को ज़रा दूर बैठा देखता हूं. सोशल डिस्टेंसिंग का पूरी तरह पालन करते हुए मैं भी उनके साथ हो लेता हूं.
ज़रा देर बाद
क़ब्रिस्तान की देखभाल करने वाले बुज़ुर्ग , जो 80 बरस के होने का दावा करते हैं, वे मुझे और मेरे फ़िल्मकार दोस्त को बता रहे हैं कि कैसे एक लकवे का अटैक, दो दिल के दौरों और तीन बीवियों के बावजूद वो जिंदा बच गए.
                          क़ब्रिस्तान का केयरटेकर
जब कोरोना की डेड बॉडी आती हैं न यहां, तो सब भाग जाते
हैं क़ब्रिस्तान से.. अकेला मैं हैंडल करता हूं.. सब विल पावर
का खेल है प्यारे..
ज़रा देर बाद
इरफ़ान का चेहरा भी अब सफ़ेद चादर से ढक दिया गया है. उन्हें एक ताबूत में रख कर, ताबूत को एक रंगीन चादर से ढका जाता है.
इसे उठा कर सामने इबादत वाले हाल में ले जाया जाना है, जहां नमाज़ अता होगी.
मैं ताबूत को कांधा देता हूं.
कट टूः
इंटीरियर. नमाज़ का हॉल – दिन
सभी रिश्तेदार अंदर नमाज़ अता कर रहे हैं, मैं बाहर खड़ा हूँ.
कट टूः
इंटीरियर. इरफ़ान का घर – दिन
सुपरः साल 2018
तब्बू और मैं, मुंबई में इरफ़ान के घर के बाहर खड़े हैं. वो मुझे बेल का स्विच दबाने देती हैं. हम बेसब्री से एक दूसरे की तरफ देखते हैं.
इरफ़ान की बीमारी की ख़बर मिलने के बाद हम पहली बार उनसे मिलने जा रहे हैं.
ज़रा देर बाद
तब्बू और मैं, बेडरूम और लिविंग रूम के बीच एक छोटे से आरामदायक कमरे में चुपचाप बैठे हैं.
यही वो जगह है जहां वो अपनी सब क्रीएटिव मीटिंग्स और स्क्रिप्ट नरेशन सुनते हैं.
सफ़ेद कुर्ते पायजामे और क्रीम कलर की शॉल पहने हुए इरफ़ान अंदर दाख़िल होते हैं.
हम गले मिल कर बहोत देर तक एक दूसरे के कंधे पे रुके रहते हैं.
इरफ़ान अपने कैंसर के इलाज की कहानियाँ किसी स्क्रिप्ट की तरह सुनाना शुरू करते हैं. उनका बयान इतना मज़ाहिया और मसालेदार है कि हँस हँस कर हमारे पेट में दर्द हो रहा है.
वो डॉक्टरों और उनकी अजीब आदतों की नकल उतारते हैं. सुतपा अंदर आकर इरफ़ान को डांटती हैं कि ऐसे अपने स्पेशलिस्ट डॉक्टर का मज़ाक न उड़ाएँ.
बातचीत करते करते, दोपहर एक गहरी उदास शाम में डूबने लगी है.
वो अपने कमरे की खिड़की से बाहर देखते हुए, एक धीमी सी फ़लसफ़ियाना आवाज़ में बुदबुदाते हैं.
                         इरफ़ान
बदन में बहुत सारे जॉनर की स्क्रिप्ट एक साथ चल रही हैं..
कभी कोई थ्रिलर आगे आ जाता है तो कभी कोई कॉमेडी.. 
कभी टाइम के खिलाफ रेस चलती है तो कभी टाइम ऐसे
मद्धम पड़ जाता है कि, कितनी भी ताक़त से धकेलो.. हिलता
ही नहीं है..
वो हमारी तरफ देखकर मुस्कुराते हैं.
                          इरफ़ान
कमाल का एक्सपीरियंस हो रहा है.. बस एक ही चीज़ है.. ये
साला दर्द.. जब होता है तो झेला नहीं जाता..
कट टूः
एक्सटीरियर. क़ब्रिस्तान – दिन
क़ब्रिस्तान में, ताबूत फिर से उठाया जा रहा है.
उसे क़ब्र तक ले जाने से पहले 40 क़दम पूरे करने होंगे.
सीधा रास्ता बहुत छोटा है इसलिए उसे उल्टी दिशा में, बाहरी दरवाज़े की तरफ, ले जाया जाता है.
मैं फिर ताबूत को कांधा दे रहा हूँ.
कुछ दूरी तय हो जाने पर क़ब्रिस्तान का रखवाला हमें मुड़ने के लिए कहता है . मैं मुड़ना नहीं चाहता हूँ, कोशिश करता हूँ, लेकिन दूसरे लोग मुझ पर भारी पड़ जाते हैं.. अब ताबूत अपनी आखिरी मंज़िल की तरफ बढ़ रहा है.
कट टूः
एक्सटीरियर. गुलमर्ग, कश्मीर – भोर
सुपरः मार्च 2006
आर्ट डिपार्टमेंट के कुछ कारीगर बर्फ में एक क़ब्र खोद रहे हैं.
‘7 ख़ून माफ़’ के शूट का पहला दिन खत्म होने को है. ये रात की शिफ्ट थी. मुंबई से इसी शाम को यहां पहुंचा फ़िल्म का क्रू, शाम 6 बजे से बिना रुके शूटिंग कर रहा है. सबकी एनर्जी कम हो चुकी है.
डायरेक्शन डिपार्टमेंट में अफ़रा तफ़री मची है.
पौ फटने से पहले वसीउल्लाह को दफ़नाया जाना है.
आर्ट डिपार्टमेंट ने क़ब्र को खोदने का काम पूरा कर लिया.
पास ही में, इरफ़ान आंखें बंद किए बैठे हैं. उन्हें बुलाया जाता है. वो उस बर्फीली क़ब्र में उतरकर इत्मीनान से लेट जाते हैं.
“उफ़्फ़!! अंदर कितनी ज़्यादा ठंड होगी” – ये ख़याल अलग अलग ज़बानों और अदाओं में हर यूनिट मेंबर के ज़ेहन में से गुज़र रहा है.
कट टूः
एक्सटीरियर. क़ब्रिस्तान – दिन
क़ब्रिस्तान में, दफ़्न के तैयारी पूरी हो चुकी है. इरफ़ान अब क़ब्र के अंदर हैं .
क़ब्र खोदने वाले की आवाज़ गूँजती है.
                        क़ब्र खोदने वाला
किसी को आख़िरी दीदार करना हो तो आगे आ जाए..
भारी क़दमों से मैं आगे बढ़ता हूं.
मैं क़ब्र के एक किनारे से, इस जन्म में आख़िरी बार इरफ़ान को देख रहा हूँ.
कट टूः
एक्सटीरियर. गुलमर्ग, कश्मीर – दिन
मूवी कैमरा के सामने, एक स्लेट के क्लैप पर मेरी आवाज़.
                          मैं
एक्शन..
क़ब्र में इरफ़ान लेटे हैं, बाहर खड़े असिस्टेंटस क़ब्र भरने के लिए उन पर बर्फ फेंकनी शुरू करते हैं.
बाद में इस सीन को फिल्म से एडिट करके हटा दिया जाएगा. लेकिन फिलहाल, वो बर्फ जो रात से अब तक काफी सख़्त हो चुकी है, इरफ़ान के चेहरे पर पत्थर सी पड़ती है. मगर उनके चेहरे पर कोई हरकत नहीं होती. वो क़ब्र में यूँ लेटे हैं, जैसे कि सच में मर चुके हों.
इरफ़ान की आवाज़ में लोरी एक बार फिर साउंडट्रैक पर बजने लगती है.
                         इरफ़ान की आवाज़ (ओ.एस.)
(गाते हुए)
आ जा री निंदो तू आ जा.. इफू की आंखों में..
(उसके बाद वो नींद का जवाब गाते हैं)
आती हूं भई मैं आती हूं इफू की आंखों में..
कट टूः
एक्सटीरियर. क़ब्रिस्तान – दिन
क़ब्रिस्तान में उनकी क़ब्र को मिट्टी से भरा जा रहा है, लोरी अभी भी साउंडट्रैक पर गूँज रही है.
काश मैं अपनी ज़िंदगी से इस सीन को भी एडिट करके हटा सकता.
फ़ेड टू ब्लैक.
*** ***
(साभार- लल्लनटॉप)

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