Monday, December 6, 2010

पाठक पढ़ें और बताएं कि क्या मैं उन्हें समझ सकी : चित्रा मुद्गल

जमाना बदल रहा है और इसके साथ बदल रहा है हमारा समाज। बदल रही हैं समाज की पुरानी रूढिवादी
विचारधारा और बदल रहे हैं हम। बदल रहा है हमारे जीने का अंदाज और इसके साथ ही धीरे-धीरे एक नए
समाज की परिकल्‍पना साकार रूप ले रही है। इस नए समाज में कोई भेदभाव नहीं है, कोई दुराव नहीं है,
स्‍त्री और पुरूष के बीच कोई अंतर नहीं है। यह सत्‍य है क्‍योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो महिलाएं आज
जीवन के हर क्षेत्र में पुरूषों से कदमताल मिलाकर चल नहीं रही होती। यदि यह सच नहीं होता तो
एक बच्‍ची, जिसका बचपन समाज की पुरातनपंथी विचारधाराओं से आंतरिक संघर्ष के कारण कुंठित
होकर रह गया, आज हमारे सामने एक समाज सेविका ओर साहित्‍यकार के रूप में मोजूद नहीं होती।
जी हां, हम बात कर रहे हें हिंदी साहित्‍य की जानी-मानी हस्‍ती चित्रा मुद्गल की। व्‍यास सम्‍मान पाने
वाली पहली महिला साहित्‍यकार चित्रा से खास बात की कलिका जैन ने।

-लेखक को हिंदी साहित्य की दुनिया में आप कहाँ देखती हैं?
मुझे लगता है कि लेखक जब भी लिखना शुरू करता है या उसे यह छटपटाहट होती है कि वो लिखे
बिना नहीं रह सकता तो उसकी मुठभेड़ समाज से, व्यवस्था से, अंधविश्वासों से, रुढियों से होती है
और इसमें उसका हथियार होता है उसकी लेखनी। मेरे मन में ये बात कभी नहीं आई कि साहित्य कि
दुनिया में मैं यानि लेखक यानि की मेरी कलम की क्या हैसियत होगी. उस दुनिया में मेरे लेखन को
कैसे लिया जाएगा. मैंने सिर्फ इतना सोचा कि अपने असंतोष को मैं कैसे व्यक्त कर सकती हूँ. वह
असंतोष जो कहीं न कहीं एक स्त्री या लड़की होने के नाते होता है, अपने घर और गली से ही शुरू होता
है वो एहसास की एक लड़की को समाज में किस तरह से लिया जाये...

-आमतौर पर आपके लेखन में भी इसके खिलाफ आवाज़ देखने को मिलती है...
यह सही है क्यूंकि मैं विद्यार्थी जीवन से ही कुछ ऐसे लोगों के प्रभाव में आई जिन्‍होंने मेरे जीने का,
सोचने-समझने का नजरिया ही बदल डाला. और जहां तक मुझे लगता है कि यह मेरे लिए अच्‍छा ही
हुआ। मैंने उन्‍हीं से यह सीखा कि एक विधार्थी को अपने करियर में सफलता हासिल करने के लिए
केवल पाठ्यपुस्‍तकां तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। उसे अपने गली-मोहल्लों, अपने चारों ओर के
वातावरण के साथ लगातार कुछ नया करने की, सीखने की कोशिश करती रहनी चाहिए। लेकिन
समस्‍या यह है कि इस उम्र में लोग अक्‍सर इस सत्‍य को समझ नहीं पाते हैं।  मुझे लगता है कि
वही वो वक़्त था जिसने मुझे ऐसे लोगों के समीप किया जिन लोगों के मन में ये आग थी कि वो
दुनिया को बदलना चाहते हैं.

-क्या व्यक्तिगत तौर पर आप राजनीति में सक्रिय रूप से आने की इच्छा रखती हैं?
मेरी ऐसी इच्छा शुरू से ही नहीं रही. जिस वक़्त मैं मुंबई की झोपड़पट्टियों के लिए काम कर रही
थी तो मेरा एक लम्बा अनुभव हो रहा था. मुझे लगन से काम करता देख हमारे उत्तर भारतियों
के नेता हुआ करते थे राम मनोहर त्रिपाठी, उन्होंने कहा कि इस बार हम चित्रा को विधानसभा चुनाव
के लिए खड़ा करेंगे. और मेरा विश्वास है कि वो ज़रूर जीत जाएंगी. लेकिन मुझे मना किया मृणाल
गोरे ने. वो कहने लगीं कि देखो चित्रा तुमने अभी कुछ नहीं देखा है. तुमने जो कुछ देखा है वह तो
केवल एक बानगी भर है। अभी से ही अगर तुम इस राजनीति के प्रलोभन में पड़ गयी और तुम्हें
लगा कि तुममें बोलने की और लोगों के लिए लड़ने की ताकत है तो तुम बहुत कुछ नहीं देख  पाओगी.
मेरे उन बुजुर्गों ने मुझे समाज के लिए चेताया और समझाया की तुम ५ % की आवाज़ बनना चाहती
हो या पूरे देश की महिलाओं की...

-आप एक लेखिका होने साथ ही एक समाज सेविका भी हैं. तो क्या यही वजह है की नारी 
के उत्पीडन की आवाज़ आपके लेखन में आपकी आवाज़ बन जाती है?
शुरू में मैं केवल स्त्रियों के लिए काम नहीं कर रही थी. ट्रेड यूनियन में मजदूर स्रियाँ भी उनका हिस्सा
थीं. उनकी बहुत सी समस्‍याएं थीं. मैंने "आवां" में उन सब की बात रखी है. उनको उतने ही घंटे
काम करने के लिए वो पारिश्रमिक नहीं मिलता था जो पुरुषों को मिलता था. यह मानकर चला जाता
था कि औरतें कमज़ोर हैं और पुरुषों के मुकाबले उनके काम करने की क्षमता कम होती है। उन्हें 'पैकिंग गर्ल्स'
के रूप में रखना चाहिए. लेकिन ये बात हमारे नेता दत्ता सामंत जी ने समझाई  कि महिलाएं भी पुरूषों
की तरह लगातार 9 घंटे काम करती हैं, इससे पहले भी वो अपने घर का कामकाज निपटा  कर आती हैं.
मतलब ये कि वो दोहरा श्रम करती हैं और इसलिए उन्‍हें पुरूषों के बराबर पारिश्रमिक मिलनी ही चाहिए।
इसका ज़िक्र मैंने "आवां" में किया.

-क्या लड़की होने के कारण आपको अपने बचपन में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा ?
हाँ बिलकुल, मैं ज़मींदार परिवार के घर की पोती थी. जब मैंने कहा कि मुझे नृत्य सीखना है तो मेरी
दादी ने कहा की "पतुरिया बने खे का? रंडी हमलोग नचाते हैं, हमारे खानदान की लड़कियां नाचती नहीं
और तुम नाच सिखियो? हमारी नाक कट जाएगी...." मैंने कहा, मैं अपनी पॉकेट मनी से बचा कर
सीखूंगी तो उन्होंने कहा कि तुम्‍हें पॉकेट मनी नाच सीखने के लिए नहीं दिया जाता। मैंने कहा मैं ट्यूशन कर
लूंगी, तो उन्होंने कहा की जो पढने में खुद इतना साधारण हो उससे ट्यूशन कौन लेगा? मैंने कहा कि नहीं
हिंदी पढने के लिए कुछ लोग टीचर रखते हैं. और तबसे ही मैंने तय कर लिया की पॉकेट मनी नहीं लूंगी।
मुझे लगा कि अगर पॉकेट मनी देकर मेरी आत्मा, चेतना और ख्वाहिशों को कुचला जाएगा तो फिर न लेना
ही बेहतर है...

तो हमारे यहाँ मुख्य देहरी से आप दाखिल नहीं हो सकते थे. बैक साइड से स्त्रियाँ घुसती थीं और बाहर आती
थीं. ये सब देख के मुझे लगा कि मैं जब कभी शादी करुँगी तो ऐसे गाँव में नहीं करुँगी, ऐसी जात में नहीं
करुँगी जहाँ औरत को ससुराल आकर इतना लम्बा घूँघट निकालना पड़ता है. जब मैंने घर में शादी की
खबर दी तो मुद्गल जी मिलने के लिए मेरे घर पर आये. मेरे पिताजी ने उनसे कहा की तुम जानते हो
जो तनख्वाह तुम ४०० रूपए पाते हो वो हमारे यहाँ ड्राईवर को दी जाती है. यह लड़की जिन सुविधाओं में
जी रही है इसका बुखार उतर जाएगा. इधर इसे बुखार चढा है  समाज सेवा का, अपने होने को जीने का और
ठाकुर खानदान में ब्याह न करने का. लेकिन मैंने तय कर लिया था की मैं ये गाय-बैलों वाली ज़िन्दगी नहीं
जी सकती. खैर, जब मेरा बेटा पैदा हुआ राजीव तो अस्पताल में मेरे पिताजी भी आये. मुझसे नहीं बोले,
उनकी नाराज़गी बरकरार थी. उन्होंने नर्सों को चांदी के सिक्के दिए बच्चे को प्यार करके चले गए. तो इन
सारी बातों से कहीं न कहीं दुःख होता है, किसी भी लड़की को अपना घर छोड़ते हुए कभी ख़ुशी नहीं होती।

-क्या आप मानती हैं हिंदी साहित्य की मौजूदा स्थिति अब मुरझाई हुई सी हो गयी है या अंग्रेजी के 
पीछे भागना इसकी एक वजह है?
मुझे नहीं लगता कि मुरझाई हुई स्थिति है बल्कि मेरे माधुरी के दिनों की मित्र शोभा किलाचंद थीं जो अब
शोभा डे हैं, उनकी तरह का लेखन हमारे यहाँ गुलशन नंदा और शिवानी जी करते रहे हैं तो लोग उनको लेखक
नहीं मानते. कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और उषा प्रियम्वदा के बीच शिवानी जी कहीं नहीं रहतीं. हाँ,
जो लोग ये सोचते हैं कि अंग्रेजी में लिख कर वो हिन्दुस्तानी लेखक कम, रातों रात अंतरराष्ट्रीय लेखक हो जाएँगे
तो ये उनकी गलतफहमी है. एक अरुंधती रॉय हो गयी हैं तो ये अलग बात है. लेकिन हमारी अन्य लेखिकाएं
या लेखक, मैं नाम नहीं लेना चाहूंगी वो कहीं नहीं पहुंचे... अंग्रेजी में लिखने वाला व्यक्ति कहीं न कहीं एक
तरह की सुपिरिओरिटी कॉम्प्लेक्स में जीता है. लेकिन उनको इतने पाठक नहीं मिलते. वहां भी देखेंगे कि कई
अंग्रेजी के बहुत बड़े बड़े प्रकाशक रोते हुए मिलेंगे कि जी इनको तो साहित्य अकेडमी अवार्ड मिल गया है,
लेकिन इनकी किताब कोई विशेष नहीं बिक रही है. हिन्दुस्तान में ही बिक रही है. जो विदेशों में झुम्पा लाहिरी
वगेरह हैं, उनका भी बेस्ट सेलर रूप एक आध पुस्तकों को लेकर है.

-आजकल आप किन कामों में लेखनी चला रही हैं?
मैंने बच्चों की चार किताबें लिखी हैं. मैं ये मानती हूँ कि बच्चों के लिए लिखना बहुत ज़रूरी है केवल आग्रह
पर लिखना ज़रूरी नहीं है. जो बच्चा पैदा हम करते हैं उसको हमें सिखाना होगा ताकि लड़के लड़की के भेद
को मिटाया जाये. और लिखना भी होगा ताकि बच्चे इन चीज़ों को पढ़ के सीखें की अपने घर में अपनी बहनों
के साथ उन्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए.

-चित्रा जी हमसे बात करने के लिए धन्यवाद.
मैं ज़रूर चाहूंगी कि मुझे पढ़ने वाले मेरी किताबों को पढें और मुझे बताएं कि मैं क्या लिख पाती हूँ, क्या
मैं उनके मन का, उनके संघर्ष का, उनके उत्पीडन का, जीवन और शोषण का कोई भी एक क्षण पकड़ पाती हूँ
क्या? वो मुझे पढेंगे तो मुझे ख़ुशी होगी...
 sabhar-Hindi Lok

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