Monday, December 6, 2010

पाठक पढ़ें और बताएं कि क्या मैं उन्हें समझ सकी : चित्रा मुद्गल

जमाना बदल रहा है और इसके साथ बदल रहा है हमारा समाज। बदल रही हैं समाज की पुरानी रूढिवादी
विचारधारा और बदल रहे हैं हम। बदल रहा है हमारे जीने का अंदाज और इसके साथ ही धीरे-धीरे एक नए
समाज की परिकल्‍पना साकार रूप ले रही है। इस नए समाज में कोई भेदभाव नहीं है, कोई दुराव नहीं है,
स्‍त्री और पुरूष के बीच कोई अंतर नहीं है। यह सत्‍य है क्‍योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो महिलाएं आज
जीवन के हर क्षेत्र में पुरूषों से कदमताल मिलाकर चल नहीं रही होती। यदि यह सच नहीं होता तो
एक बच्‍ची, जिसका बचपन समाज की पुरातनपंथी विचारधाराओं से आंतरिक संघर्ष के कारण कुंठित
होकर रह गया, आज हमारे सामने एक समाज सेविका ओर साहित्‍यकार के रूप में मोजूद नहीं होती।
जी हां, हम बात कर रहे हें हिंदी साहित्‍य की जानी-मानी हस्‍ती चित्रा मुद्गल की। व्‍यास सम्‍मान पाने
वाली पहली महिला साहित्‍यकार चित्रा से खास बात की कलिका जैन ने।

-लेखक को हिंदी साहित्य की दुनिया में आप कहाँ देखती हैं?
मुझे लगता है कि लेखक जब भी लिखना शुरू करता है या उसे यह छटपटाहट होती है कि वो लिखे
बिना नहीं रह सकता तो उसकी मुठभेड़ समाज से, व्यवस्था से, अंधविश्वासों से, रुढियों से होती है
और इसमें उसका हथियार होता है उसकी लेखनी। मेरे मन में ये बात कभी नहीं आई कि साहित्य कि
दुनिया में मैं यानि लेखक यानि की मेरी कलम की क्या हैसियत होगी. उस दुनिया में मेरे लेखन को
कैसे लिया जाएगा. मैंने सिर्फ इतना सोचा कि अपने असंतोष को मैं कैसे व्यक्त कर सकती हूँ. वह
असंतोष जो कहीं न कहीं एक स्त्री या लड़की होने के नाते होता है, अपने घर और गली से ही शुरू होता
है वो एहसास की एक लड़की को समाज में किस तरह से लिया जाये...

-आमतौर पर आपके लेखन में भी इसके खिलाफ आवाज़ देखने को मिलती है...
यह सही है क्यूंकि मैं विद्यार्थी जीवन से ही कुछ ऐसे लोगों के प्रभाव में आई जिन्‍होंने मेरे जीने का,
सोचने-समझने का नजरिया ही बदल डाला. और जहां तक मुझे लगता है कि यह मेरे लिए अच्‍छा ही
हुआ। मैंने उन्‍हीं से यह सीखा कि एक विधार्थी को अपने करियर में सफलता हासिल करने के लिए
केवल पाठ्यपुस्‍तकां तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। उसे अपने गली-मोहल्लों, अपने चारों ओर के
वातावरण के साथ लगातार कुछ नया करने की, सीखने की कोशिश करती रहनी चाहिए। लेकिन
समस्‍या यह है कि इस उम्र में लोग अक्‍सर इस सत्‍य को समझ नहीं पाते हैं।  मुझे लगता है कि
वही वो वक़्त था जिसने मुझे ऐसे लोगों के समीप किया जिन लोगों के मन में ये आग थी कि वो
दुनिया को बदलना चाहते हैं.

-क्या व्यक्तिगत तौर पर आप राजनीति में सक्रिय रूप से आने की इच्छा रखती हैं?
मेरी ऐसी इच्छा शुरू से ही नहीं रही. जिस वक़्त मैं मुंबई की झोपड़पट्टियों के लिए काम कर रही
थी तो मेरा एक लम्बा अनुभव हो रहा था. मुझे लगन से काम करता देख हमारे उत्तर भारतियों
के नेता हुआ करते थे राम मनोहर त्रिपाठी, उन्होंने कहा कि इस बार हम चित्रा को विधानसभा चुनाव
के लिए खड़ा करेंगे. और मेरा विश्वास है कि वो ज़रूर जीत जाएंगी. लेकिन मुझे मना किया मृणाल
गोरे ने. वो कहने लगीं कि देखो चित्रा तुमने अभी कुछ नहीं देखा है. तुमने जो कुछ देखा है वह तो
केवल एक बानगी भर है। अभी से ही अगर तुम इस राजनीति के प्रलोभन में पड़ गयी और तुम्हें
लगा कि तुममें बोलने की और लोगों के लिए लड़ने की ताकत है तो तुम बहुत कुछ नहीं देख  पाओगी.
मेरे उन बुजुर्गों ने मुझे समाज के लिए चेताया और समझाया की तुम ५ % की आवाज़ बनना चाहती
हो या पूरे देश की महिलाओं की...

-आप एक लेखिका होने साथ ही एक समाज सेविका भी हैं. तो क्या यही वजह है की नारी 
के उत्पीडन की आवाज़ आपके लेखन में आपकी आवाज़ बन जाती है?
शुरू में मैं केवल स्त्रियों के लिए काम नहीं कर रही थी. ट्रेड यूनियन में मजदूर स्रियाँ भी उनका हिस्सा
थीं. उनकी बहुत सी समस्‍याएं थीं. मैंने "आवां" में उन सब की बात रखी है. उनको उतने ही घंटे
काम करने के लिए वो पारिश्रमिक नहीं मिलता था जो पुरुषों को मिलता था. यह मानकर चला जाता
था कि औरतें कमज़ोर हैं और पुरुषों के मुकाबले उनके काम करने की क्षमता कम होती है। उन्हें 'पैकिंग गर्ल्स'
के रूप में रखना चाहिए. लेकिन ये बात हमारे नेता दत्ता सामंत जी ने समझाई  कि महिलाएं भी पुरूषों
की तरह लगातार 9 घंटे काम करती हैं, इससे पहले भी वो अपने घर का कामकाज निपटा  कर आती हैं.
मतलब ये कि वो दोहरा श्रम करती हैं और इसलिए उन्‍हें पुरूषों के बराबर पारिश्रमिक मिलनी ही चाहिए।
इसका ज़िक्र मैंने "आवां" में किया.

-क्या लड़की होने के कारण आपको अपने बचपन में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा ?
हाँ बिलकुल, मैं ज़मींदार परिवार के घर की पोती थी. जब मैंने कहा कि मुझे नृत्य सीखना है तो मेरी
दादी ने कहा की "पतुरिया बने खे का? रंडी हमलोग नचाते हैं, हमारे खानदान की लड़कियां नाचती नहीं
और तुम नाच सिखियो? हमारी नाक कट जाएगी...." मैंने कहा, मैं अपनी पॉकेट मनी से बचा कर
सीखूंगी तो उन्होंने कहा कि तुम्‍हें पॉकेट मनी नाच सीखने के लिए नहीं दिया जाता। मैंने कहा मैं ट्यूशन कर
लूंगी, तो उन्होंने कहा की जो पढने में खुद इतना साधारण हो उससे ट्यूशन कौन लेगा? मैंने कहा कि नहीं
हिंदी पढने के लिए कुछ लोग टीचर रखते हैं. और तबसे ही मैंने तय कर लिया की पॉकेट मनी नहीं लूंगी।
मुझे लगा कि अगर पॉकेट मनी देकर मेरी आत्मा, चेतना और ख्वाहिशों को कुचला जाएगा तो फिर न लेना
ही बेहतर है...

तो हमारे यहाँ मुख्य देहरी से आप दाखिल नहीं हो सकते थे. बैक साइड से स्त्रियाँ घुसती थीं और बाहर आती
थीं. ये सब देख के मुझे लगा कि मैं जब कभी शादी करुँगी तो ऐसे गाँव में नहीं करुँगी, ऐसी जात में नहीं
करुँगी जहाँ औरत को ससुराल आकर इतना लम्बा घूँघट निकालना पड़ता है. जब मैंने घर में शादी की
खबर दी तो मुद्गल जी मिलने के लिए मेरे घर पर आये. मेरे पिताजी ने उनसे कहा की तुम जानते हो
जो तनख्वाह तुम ४०० रूपए पाते हो वो हमारे यहाँ ड्राईवर को दी जाती है. यह लड़की जिन सुविधाओं में
जी रही है इसका बुखार उतर जाएगा. इधर इसे बुखार चढा है  समाज सेवा का, अपने होने को जीने का और
ठाकुर खानदान में ब्याह न करने का. लेकिन मैंने तय कर लिया था की मैं ये गाय-बैलों वाली ज़िन्दगी नहीं
जी सकती. खैर, जब मेरा बेटा पैदा हुआ राजीव तो अस्पताल में मेरे पिताजी भी आये. मुझसे नहीं बोले,
उनकी नाराज़गी बरकरार थी. उन्होंने नर्सों को चांदी के सिक्के दिए बच्चे को प्यार करके चले गए. तो इन
सारी बातों से कहीं न कहीं दुःख होता है, किसी भी लड़की को अपना घर छोड़ते हुए कभी ख़ुशी नहीं होती।

-क्या आप मानती हैं हिंदी साहित्य की मौजूदा स्थिति अब मुरझाई हुई सी हो गयी है या अंग्रेजी के 
पीछे भागना इसकी एक वजह है?
मुझे नहीं लगता कि मुरझाई हुई स्थिति है बल्कि मेरे माधुरी के दिनों की मित्र शोभा किलाचंद थीं जो अब
शोभा डे हैं, उनकी तरह का लेखन हमारे यहाँ गुलशन नंदा और शिवानी जी करते रहे हैं तो लोग उनको लेखक
नहीं मानते. कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और उषा प्रियम्वदा के बीच शिवानी जी कहीं नहीं रहतीं. हाँ,
जो लोग ये सोचते हैं कि अंग्रेजी में लिख कर वो हिन्दुस्तानी लेखक कम, रातों रात अंतरराष्ट्रीय लेखक हो जाएँगे
तो ये उनकी गलतफहमी है. एक अरुंधती रॉय हो गयी हैं तो ये अलग बात है. लेकिन हमारी अन्य लेखिकाएं
या लेखक, मैं नाम नहीं लेना चाहूंगी वो कहीं नहीं पहुंचे... अंग्रेजी में लिखने वाला व्यक्ति कहीं न कहीं एक
तरह की सुपिरिओरिटी कॉम्प्लेक्स में जीता है. लेकिन उनको इतने पाठक नहीं मिलते. वहां भी देखेंगे कि कई
अंग्रेजी के बहुत बड़े बड़े प्रकाशक रोते हुए मिलेंगे कि जी इनको तो साहित्य अकेडमी अवार्ड मिल गया है,
लेकिन इनकी किताब कोई विशेष नहीं बिक रही है. हिन्दुस्तान में ही बिक रही है. जो विदेशों में झुम्पा लाहिरी
वगेरह हैं, उनका भी बेस्ट सेलर रूप एक आध पुस्तकों को लेकर है.

-आजकल आप किन कामों में लेखनी चला रही हैं?
मैंने बच्चों की चार किताबें लिखी हैं. मैं ये मानती हूँ कि बच्चों के लिए लिखना बहुत ज़रूरी है केवल आग्रह
पर लिखना ज़रूरी नहीं है. जो बच्चा पैदा हम करते हैं उसको हमें सिखाना होगा ताकि लड़के लड़की के भेद
को मिटाया जाये. और लिखना भी होगा ताकि बच्चे इन चीज़ों को पढ़ के सीखें की अपने घर में अपनी बहनों
के साथ उन्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए.

-चित्रा जी हमसे बात करने के लिए धन्यवाद.
मैं ज़रूर चाहूंगी कि मुझे पढ़ने वाले मेरी किताबों को पढें और मुझे बताएं कि मैं क्या लिख पाती हूँ, क्या
मैं उनके मन का, उनके संघर्ष का, उनके उत्पीडन का, जीवन और शोषण का कोई भी एक क्षण पकड़ पाती हूँ
क्या? वो मुझे पढेंगे तो मुझे ख़ुशी होगी...
 sabhar-Hindi Lok

Saturday, November 20, 2010

क्यों पढ़ना चाहिए आज भी प्रेमचंद को?
 

 
 
प्रेमचंद
उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं पर ज़बरदस्त पकड़ थी प्रेमचंद की
साहित्य या रचनाकृति जो है वह तो मूल रुप से कलाकृति होती है और वह सौंदर्य की चीज़ होती है.
सौंदर्य के बारे में कीट्स ने कहा है कि ए थिंग ऑफ़ ब्यूटी इज़ ज्वाय फॉर एवर. तो जब हम प्रेमचंद या किसी और बड़े कलाकार के बारे में बात करते हैं जो वह यह मानना चाहिए कि सौंदर्य की कृति है.
सौंदर्य एक ऐसी चीज़ है जिसे लोग देखना चाहते हैं, उसका स्वाद लेना चाहते हैं. जो साहित्य है वह शब्दबद्ध सौंदर्य है और वह बूढ़ी नहीं हो सकती.
जो कालजयी साहित्य होता है वह समय के साथ-साथ और निखरता जाता है. जैसा कि सौंदर्य के बारे में कहा गया है कि जो समय के साथ निखरता जाता है वह सौंदर्य होता है.
साहित्यकार एक सौंदर्य की सृष्टि करते हैं और प्रेमचंद जितने बड़े रचनाकार हैं उतने बड़े सौंदर्य के निर्माता हैं इसलिए साहित्य बार-बार पढ़ा जाता है, जिसे हमे क्लासिकल साहित्य कहते हैं.
तो अगर नई पीढ़ी को सौंदर्य के प्रति उत्सुकता है, यदि उसमें क्षमता बची हुई है कि वह सौंदर्य का आस्वादन कर सके तो वे प्रेमचंद को पढ़ेंगे.
इतिहास बिद्ध
दूसरी बात यह कि जो बड़ा साहित्य होता है वह इतिहास बिद्ध होता है और इसका मतलब यह है कि अपने समय के इतिहास से जूझता है.
 साहित्य चीज़ों को जानने का भी बहुत बड़ा स्रोत है. इतिहासकार और अर्थशास्त्री जिन चीज़ों को छोड़ देते हैं, या छूट जाता है, जिस पर प्रकाश नहीं डाल सकते, साहित्यकार उस पर प्रकाश डालता है
 

साहित्य अपने समय के कितनों ही मुद्दों से, सूत्रों से, परिदृश्यों से जूझता है. आज की पीढ़ी उन सारे मुद्दों से हिंदुस्तान में जूझ रही है जो मुद्दे या सूत्र प्रेमचंद ने उठाए जैसे दहेज, अशिक्षा, वर्णाश्रम व्यवस्था, दलित आंदोलन, दलित चेतना, नारी चेतना है और सबसे बड़ी बात किसान की समस्या है.
प्रेमचंद किसान समस्या के सबसे बड़े रचनाकार हैं. अब रंगभूमि में सूरदास है, जिसकी छोटी सी ज़मीन है जिसपर मिल मालिक है जानसेवक आ कर के उस ज़मीन को हथियाना चाहता है, सूरदास उसे ज़मीन नहीं देते हैं. पूरे रंगभूमि में उसका संघर्ष दिखाई पड़ता है. गोदान में होरी छोटा किसान है. उसके ऊपर, चाहे वह कर्मकांड का हो, वर्णाश्रम व्यवस्था, सामंतवाद का हो, हर प्रकार के दबाव से उसकी ज़मीन छीन ली जाती है, और उसका लड़का नौकर बन जाता है.
इतिहास की यह प्रक्रिया उस समय से चल रही है कि छोटे किसान की ज़मीन उसके हाथ से निकल रही और वह मज़दूर बनने पर विवश है, यह एक इतिहास की प्रक्रिया है, यथार्थ का प्रवाह है. जिसे प्रेमचंद अपने उपन्यासों, कथाकृति में प्रकट करते हैं.
हमें यह याद रखना चाहिए कि साहित्य चीज़ों को जानने का भी बहुत बड़ा स्रोत है. इतिहासकार और अर्थशास्त्री जिन चीज़ों को छोड़ देते हैं, या छूट जाता है, जिस पर प्रकाश नहीं डाल सकते, साहित्यकार उस पर प्रकाश डालता है. मूल रूप से साहित्य एक जनतांत्रिक अनुशासन ही है.
स्वाधीनता आंदोलन ने जिन संपूर्ण रचनाकारों को जन्म दिया है उनमें से प्रेमचंद निश्चित रूप से महान रचनाकार हैं इसलिए हम बार-बार उनको पढ़ते हैं.
और इसीलिए उसे आज भी पढ़ा जाना चाहिए.
ये ठीक है कि प्रेमचंद के सामने जो समस्या थी वह आज उस रूप में नहीं है. प्रेमचंद ने किसान का जीवंत चित्रण किया है. आज के किसान आत्महत्या कर रहे हैं. किसानी दिमाग में पूंजीवाद आ रहा है. वह जल्दी बड़ा बनना चाहता है, जब वह नहीं होता है तो निराश होकर किसान आत्महत्या करता है. आज के रचनाकार को इसका वरण करना पड़ेगा.
 

Saturday, October 30, 2010

कई साल से कहाँ गुम हूँ

कई साल से कहाँ गुम हूँ
खबर नहीं 
नींद में ढूंढता है बिस्तर मेरा 
हर घड़ी खुद से उलझना 
है मुकद्दर मेरा 
मै ही कश्ती हूँ 
मुझी में है समंदर मेरा.............  

Friday, October 29, 2010

खामोश जिंदगी के कुछ नए अफसाने

अपने बारे में क्या कहूँ, जिंदगी की इस भीड़ भरे जंगल में एक बेसाख्ता तन्हा इंसान, जिसने हमेशा अजनबियों में अपनेपन की तलाश में खुद को खो दिया है| जिंदगी को बहुत नजदीक से देखते हुए भी उसकी खुमारियों से दूर हूँ| साहित्य में गहरी रूचि होने पर, इसने किरोड़ीमल कॉलेज से एम.ए. करा दिया और फिल्मों से इन्तहाई मुहब्बत होने के कारण एम.फिल. करने पर मजबूर कर दिया| बहरहाल अब साहित्य और सिनेमा के बुनियादी अन्तेर्सम्बंधों पर जे.एन.यु. से पी.एचडी कर रहा हूँ| बचपन से ही अपने अन्दर फिल्मों के प्रति गंभीर रचावट और बसावट लगातार महसूस करते हुए, सभी तरह की फ़िल्में स्कूल छोड़कर देखता था| इससे सबसे ज्यादा तकलीफ मेरी माँ को होती थी, उसे लगता था कि उसका इकलौता बेटा बर्बादी के कगार पर पहुँच चुका है| लेकिन पिछले कुछ सालों से मेरी माँ का विश्वास मेरे प्रति लौट रहा है| माँ के इस लौटते विश्वास का कारण आज तक नहीं समझ पाया क्योंकि जीवन के छब्बीसवें वसंत में आज भी फाकेमस्ती बरक़रार है| फिर कहीं यह भावनात्मक (छलावा वश) लगाव तो नहीं..............                     

Wednesday, September 29, 2010

सामाजिक सरोकार के फिल्मकार विमल राय

अपनी शुरू-शुरू की फिल्मों में जमींदारी प्रथा का विरोध करने वाले विमल राय खुद जमींदार परिवार के थे। बिमलचंद्र राय का जन्म 1909 में तत्कालीन पूर्व बंगाल (अब बंगलादेश) के एक गांव के जमींदार परिवार में हुआ था। बंगाल की ग्रामीण लोकधुनों के बीच वे पले-बढ़े , जो बाद में उनकी फिल्मों के संगीत में उभरीं।बचपन से ही उनको फोटोग्राफी का शौक था। अचानक परिवार में आर्थिक संकट आया तो सातों भाई काम की तलाश में कलकत्ता चले आये।
कलकत्ता में न्यू थिएटर्स में प्रशिक्षणार्थी कैमरामैन के रूप में अपनी जिंदगी शुरू करनेवाले विमल दा कुछ ही दिनों में मशहूर निर्देशक नितन बोस के सहायक कैमरामैन बन गये। उनकी योग्यता देख कर पी सी बरुआ ने अपनी फिल्म ‘देवदास’ (कुंदनलाल सहगल, जमुना बरुआ) के छायांकन का भार सौंपा। इसके बाद उन्होंने उनकी कई फिल्मों का छायांकन किया। उन्हें पहली बार निर्देशन का भार बंगला फिल्म ‘उदयेर पथे’ में सौंपा गया।इस क्षेत्र में उन्हें लाने का श्रेय न्यू थिएटर्स के मालिक बी.एन. सरकार को है। बिमल दा ‘उदयेर पथे’ के पटकथा लेखक, छायाकार और निर्देशक थे। इस फिल्म ने अपार सफलता पायी। न्यू थिएटर्स ने जब अपनी यह महत्वाकांक्षी फिल्म हिंदी में बनाने का इरादा किया, तो निर्देशक के रूप में उनके सामने विमल दा का ही नाम आया। यह एक ऐसे आदर्शवादी की कहानी थी, जो पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करता है।
वह स्वतंत्रता संग्राम के दिन थे। सारे देश में क्रांति की लहर आयी थी। विमल दा की फिल्मों ‘अजानगढ़’ और ‘पहला आदमी’ में भी इसका प्रभाव साफ दिखा।
1950 में कलकत्ता से बंबई आ कर उन्होंने बांबे टाकीज के लिए पहली फिल्म ‘मां’ निर्देशित की। उन्होंने शहरों में गरीब तबके के लोगों की दुखभरी जिंदगी देखी थी। इस सबने उनमें प्रगतिवादी विचारधारा पैदा की। उनकी फिल्मों ने व्यवस्था में बदलाव की प्रेरणा दी। वे कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक शाखा से भी जुड़े थे।
v1952 में इरोज थिएटर के सामने भारत का पहला फिल्म समारोह आयोजित किया गया। इसे देखने के लिए विमल दा अपनी पूरी यूनिट के साथ आये थे। वे सभी डे सिका की फिल्म ‘बाइसिकिल थीफ’ से बेहद प्रभावित हुए। उसी वक्त उन्होंने सचा कि अगर वे अपना फिल्म प्रोडक्शन शुरू करते हैं, तो उनका उद्देश्य अच्छी फिल्में बनाना होगा। इसी बीच उन्हें मोहन स्टूडियो के मालिक रमणीकलाल शाह की ओर से एक आफर मिला। वे अपने दोस्त दलीचंद शाह के लिए एक कम बजट की फिल्म बनाना चाहते थे। विमल दा ने एक शर्त रखी कि फिल्म विमल राय प्रोडक्शंस के बैनर में बनेगी और निर्माण के दौरान उनके काम में किसी तरह की दखलंदाजी नहीं की जायेगी। उनकी शर्त मान ली गयी। उनकी यूनिट में उन दिनो हृषिकेश मुखर्जी भी थे। उन्होंने सलिल चौधरी की लिखी बंगला कहानी ‘रिक्शावाला’ पढ़ी थी। वह कहानी विमल दा को बहुत भायी थी। इस पर ही ‘ दो बीघा जमीन’ बनाने का निश्चय किया गया। सलिल चौधरी ने इस फिल्म से संगीतकार के रूप में जुड़ना चाहा। वे फिल्म के कहानीकार भी थे, उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया गया।
इसके बाद शंभू महतो की भूमिका के लिए उपयुक्त कलकार के चुनाव का सवाल आया। कई नामों पर विचार करने के बाद यह भूमिका बलराज साहनी को देने का निश्चय किया गया। ‘दो बीघा जमीन’ में उन्होंने शंभू महतो की भूमिका में बहुत ही सशक्त और जीवंत अभिनय किया। उनके साथ इस फिल्म में हीरोइन थीं निरुपा राय।
इसके बाद आयी ‘परिणीता’( अशोक कुमार, मीना कुमारी)। यह एक प्रेमकथा थी जिसके माध्यम से जाति-वर्ग के झूठे दायरों पर चोट की गयी थी। उन्होंने ‘बिराज बहू’ , ‘बाप बेटी’ तथा ‘नौकरी’ आदि फिल्में दीं। उनके बैनर की जिन फिल्मों को दूसरे निर्देशकों ने निर्देशित किया वें थीं-‘अमानत’, ‘परिवार’, ‘अपराधी कौन’, ‘उसने कहा था’, ‘बेनजीर’, ‘काबुलीवाला’, ‘दो दूनी चार’ और ‘चैताली’।
1955 में उन्होंने बड़े सितारों दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन, मोतीलाल और वैजंयतीमाला को लेकर ‘देवदास’ बनायी। यह फिल्म बहुत हिट रही। उनकी ‘मधुमती’ (दिलीप कुमार , वैजयंतीमाला) पुनर्जन्म की कथा पर आधारित फिल्म थी। इसने अपार सफलता पायी और इसके गीत भी बेहद हिट हुए। 1959 में उन्होंने अस्पृश्यता की कथावस्तु पर ‘सुजाता’ फिल्म बनायी। नूतन, सुनील दत्त, शशिकला और ललिता पवार की प्रमुख भूमिकाओंवाली इस फिल्म ने भी सफलता के नये कीर्तिमान बनाये। इसकी प्रशंसा पंडित जवाहरलाल नेहरू तक ने की थी। इसके बाद विमल दा की ख्याति और भी बढ़ गयी। वे विदेश फिल्मों के प्रतिनिधि मंडल के साथ जाने लगे। ‘परख’, ‘प्रेमपत्र’ बनाने के बाद उन्होंने 1963 में ‘बंदिनी’ बनायी। इसमें अशोक कुमार, नूतन और धर्मेंद्र ने यादगार अभिनय किया। यह विमल दा की अंतिम यादगार फिल्म थी। विमल दा की फिल्मों का गीत-संगीत पक्ष भी बहुत सशक्त होता था।
                                                                                                 मानवेन्द्र सिंह
                                                                                        भारतीय भाषा केंद्र (जे.एन.यू)
                                                                                           नई दिल्ली ११ ० ० ६ ७

Monday, September 27, 2010

हमें मोरलिटी की जकड़न से मुक्त होना होगा : अनुराग कश्यप




में मोरलिटी की जकड़न से मुक्त होना होगा : अनुराग कश्यप
मुझे स्त्री-पुरुष संबंध समझ में नहीं आता। मैंने कोशिश भी की है। मैंने महिला पात्र जब भी लिखे हैं, जिन्हें मैं जानता हूं, जिनके साथ मैं बात करता हूं, मेरी जो हिरोइनें पर्सनल लाइफ में रही हैं, वही मेरे फिल्मों में आ गयी हैं। स्क्रीन पर फिल्म में प्रेम दिखते नहीं। वो छूते क्यों नहीं, आंखों में एक्सप्रेशन दिखता नहीँ। वो हाव-भाव उनके हाथो में नहीं दिखता। मैं चाहता हूं कि जो प्रेम है वो दिखना चाहिए।
हमारे सिनेमा में जो दिखता है, वो खुद की मोरैलिटी है। सेल्फ पिटी एक ऐसी बीमारी है, जिसे हमने सदियों से सिलेब्रेट किया है। हम जो छोटी जगहों पर तय कर लेते हैं कि ये तेरी वाली मेरी वाली। वो चली जाती है, पता नहीं चलता। समझने की कोशिशों में व्यर्थ समय नहीं देना चाहिए। ये स्क्रीन पर आ जाए तो बहुत बेहतर होगा। हमारे भीतर अच्छा दिखने की फीलिंग होती है।
इंडियन मेल के बीच प्रॉब्लम रहा है कि ख्याल भी रखेंगे और फैंटेसी भी हो। मैं स्वतंत्र लड़की पसंद करता हूं। हमलोग बहुत इंप्रेशनलेबल होते हैं कि समाज लड़की को किस तरह की पैकेज में देखना चाहता है और फिर हम उसी हिसाब से बंध जाते हैं।
अनुराग कश्यप ने सिर्फ इस सत्र में ही नहीं बल्कि कई बार इस बात को दोहराया कि हमारा सिनेमा इतनी तरह की बंदिशों से जकड़ा हुआ है कि फिर सिनेमा बनाना सिर्फ बनाने का काम नहीं रह जाता। उसमें राजनीतिक, सांस्कृतिक झोल से लेकर तमाम तरह की अपनी वर्जनाएं घुस आती हैं। अनुराग की इसी बात को गीतकार नीलेश मिश्र मन की सच्चाइयों को समाज की सच्चाइयों की तरफ शिफ्ट करते हैं और बताते हैं कि कैसे समय के साथ हमारा नजरिया, जरूरतें बदलती चली जाती हैं जबकि सिनेमा में रिश्तों के नाम पर अभी भी एक टाइप बना हुआ है।
(sabhar- veenit kumar)

सिनेमा में स्क्रिप्ट सबसे अहम चीज़ है मेरे लिए

किसी फिल्म (शूल) का मुख्य किरदार (मनोज वाजपेयी) आपसे कहे कि फला किरदार (समर प्रताप सिंह) को निभाते समय अवसाद के कारण मुझे मनोचिकित्सक के प...