Wednesday, September 29, 2010

सामाजिक सरोकार के फिल्मकार विमल राय

अपनी शुरू-शुरू की फिल्मों में जमींदारी प्रथा का विरोध करने वाले विमल राय खुद जमींदार परिवार के थे। बिमलचंद्र राय का जन्म 1909 में तत्कालीन पूर्व बंगाल (अब बंगलादेश) के एक गांव के जमींदार परिवार में हुआ था। बंगाल की ग्रामीण लोकधुनों के बीच वे पले-बढ़े , जो बाद में उनकी फिल्मों के संगीत में उभरीं।बचपन से ही उनको फोटोग्राफी का शौक था। अचानक परिवार में आर्थिक संकट आया तो सातों भाई काम की तलाश में कलकत्ता चले आये।
कलकत्ता में न्यू थिएटर्स में प्रशिक्षणार्थी कैमरामैन के रूप में अपनी जिंदगी शुरू करनेवाले विमल दा कुछ ही दिनों में मशहूर निर्देशक नितन बोस के सहायक कैमरामैन बन गये। उनकी योग्यता देख कर पी सी बरुआ ने अपनी फिल्म ‘देवदास’ (कुंदनलाल सहगल, जमुना बरुआ) के छायांकन का भार सौंपा। इसके बाद उन्होंने उनकी कई फिल्मों का छायांकन किया। उन्हें पहली बार निर्देशन का भार बंगला फिल्म ‘उदयेर पथे’ में सौंपा गया।इस क्षेत्र में उन्हें लाने का श्रेय न्यू थिएटर्स के मालिक बी.एन. सरकार को है। बिमल दा ‘उदयेर पथे’ के पटकथा लेखक, छायाकार और निर्देशक थे। इस फिल्म ने अपार सफलता पायी। न्यू थिएटर्स ने जब अपनी यह महत्वाकांक्षी फिल्म हिंदी में बनाने का इरादा किया, तो निर्देशक के रूप में उनके सामने विमल दा का ही नाम आया। यह एक ऐसे आदर्शवादी की कहानी थी, जो पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करता है।
वह स्वतंत्रता संग्राम के दिन थे। सारे देश में क्रांति की लहर आयी थी। विमल दा की फिल्मों ‘अजानगढ़’ और ‘पहला आदमी’ में भी इसका प्रभाव साफ दिखा।
1950 में कलकत्ता से बंबई आ कर उन्होंने बांबे टाकीज के लिए पहली फिल्म ‘मां’ निर्देशित की। उन्होंने शहरों में गरीब तबके के लोगों की दुखभरी जिंदगी देखी थी। इस सबने उनमें प्रगतिवादी विचारधारा पैदा की। उनकी फिल्मों ने व्यवस्था में बदलाव की प्रेरणा दी। वे कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक शाखा से भी जुड़े थे।
v1952 में इरोज थिएटर के सामने भारत का पहला फिल्म समारोह आयोजित किया गया। इसे देखने के लिए विमल दा अपनी पूरी यूनिट के साथ आये थे। वे सभी डे सिका की फिल्म ‘बाइसिकिल थीफ’ से बेहद प्रभावित हुए। उसी वक्त उन्होंने सचा कि अगर वे अपना फिल्म प्रोडक्शन शुरू करते हैं, तो उनका उद्देश्य अच्छी फिल्में बनाना होगा। इसी बीच उन्हें मोहन स्टूडियो के मालिक रमणीकलाल शाह की ओर से एक आफर मिला। वे अपने दोस्त दलीचंद शाह के लिए एक कम बजट की फिल्म बनाना चाहते थे। विमल दा ने एक शर्त रखी कि फिल्म विमल राय प्रोडक्शंस के बैनर में बनेगी और निर्माण के दौरान उनके काम में किसी तरह की दखलंदाजी नहीं की जायेगी। उनकी शर्त मान ली गयी। उनकी यूनिट में उन दिनो हृषिकेश मुखर्जी भी थे। उन्होंने सलिल चौधरी की लिखी बंगला कहानी ‘रिक्शावाला’ पढ़ी थी। वह कहानी विमल दा को बहुत भायी थी। इस पर ही ‘ दो बीघा जमीन’ बनाने का निश्चय किया गया। सलिल चौधरी ने इस फिल्म से संगीतकार के रूप में जुड़ना चाहा। वे फिल्म के कहानीकार भी थे, उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया गया।
इसके बाद शंभू महतो की भूमिका के लिए उपयुक्त कलकार के चुनाव का सवाल आया। कई नामों पर विचार करने के बाद यह भूमिका बलराज साहनी को देने का निश्चय किया गया। ‘दो बीघा जमीन’ में उन्होंने शंभू महतो की भूमिका में बहुत ही सशक्त और जीवंत अभिनय किया। उनके साथ इस फिल्म में हीरोइन थीं निरुपा राय।
इसके बाद आयी ‘परिणीता’( अशोक कुमार, मीना कुमारी)। यह एक प्रेमकथा थी जिसके माध्यम से जाति-वर्ग के झूठे दायरों पर चोट की गयी थी। उन्होंने ‘बिराज बहू’ , ‘बाप बेटी’ तथा ‘नौकरी’ आदि फिल्में दीं। उनके बैनर की जिन फिल्मों को दूसरे निर्देशकों ने निर्देशित किया वें थीं-‘अमानत’, ‘परिवार’, ‘अपराधी कौन’, ‘उसने कहा था’, ‘बेनजीर’, ‘काबुलीवाला’, ‘दो दूनी चार’ और ‘चैताली’।
1955 में उन्होंने बड़े सितारों दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन, मोतीलाल और वैजंयतीमाला को लेकर ‘देवदास’ बनायी। यह फिल्म बहुत हिट रही। उनकी ‘मधुमती’ (दिलीप कुमार , वैजयंतीमाला) पुनर्जन्म की कथा पर आधारित फिल्म थी। इसने अपार सफलता पायी और इसके गीत भी बेहद हिट हुए। 1959 में उन्होंने अस्पृश्यता की कथावस्तु पर ‘सुजाता’ फिल्म बनायी। नूतन, सुनील दत्त, शशिकला और ललिता पवार की प्रमुख भूमिकाओंवाली इस फिल्म ने भी सफलता के नये कीर्तिमान बनाये। इसकी प्रशंसा पंडित जवाहरलाल नेहरू तक ने की थी। इसके बाद विमल दा की ख्याति और भी बढ़ गयी। वे विदेश फिल्मों के प्रतिनिधि मंडल के साथ जाने लगे। ‘परख’, ‘प्रेमपत्र’ बनाने के बाद उन्होंने 1963 में ‘बंदिनी’ बनायी। इसमें अशोक कुमार, नूतन और धर्मेंद्र ने यादगार अभिनय किया। यह विमल दा की अंतिम यादगार फिल्म थी। विमल दा की फिल्मों का गीत-संगीत पक्ष भी बहुत सशक्त होता था।
                                                                                                 मानवेन्द्र सिंह
                                                                                        भारतीय भाषा केंद्र (जे.एन.यू)
                                                                                           नई दिल्ली ११ ० ० ६ ७

Monday, September 27, 2010

हमें मोरलिटी की जकड़न से मुक्त होना होगा : अनुराग कश्यप




में मोरलिटी की जकड़न से मुक्त होना होगा : अनुराग कश्यप
मुझे स्त्री-पुरुष संबंध समझ में नहीं आता। मैंने कोशिश भी की है। मैंने महिला पात्र जब भी लिखे हैं, जिन्हें मैं जानता हूं, जिनके साथ मैं बात करता हूं, मेरी जो हिरोइनें पर्सनल लाइफ में रही हैं, वही मेरे फिल्मों में आ गयी हैं। स्क्रीन पर फिल्म में प्रेम दिखते नहीं। वो छूते क्यों नहीं, आंखों में एक्सप्रेशन दिखता नहीँ। वो हाव-भाव उनके हाथो में नहीं दिखता। मैं चाहता हूं कि जो प्रेम है वो दिखना चाहिए।
हमारे सिनेमा में जो दिखता है, वो खुद की मोरैलिटी है। सेल्फ पिटी एक ऐसी बीमारी है, जिसे हमने सदियों से सिलेब्रेट किया है। हम जो छोटी जगहों पर तय कर लेते हैं कि ये तेरी वाली मेरी वाली। वो चली जाती है, पता नहीं चलता। समझने की कोशिशों में व्यर्थ समय नहीं देना चाहिए। ये स्क्रीन पर आ जाए तो बहुत बेहतर होगा। हमारे भीतर अच्छा दिखने की फीलिंग होती है।
इंडियन मेल के बीच प्रॉब्लम रहा है कि ख्याल भी रखेंगे और फैंटेसी भी हो। मैं स्वतंत्र लड़की पसंद करता हूं। हमलोग बहुत इंप्रेशनलेबल होते हैं कि समाज लड़की को किस तरह की पैकेज में देखना चाहता है और फिर हम उसी हिसाब से बंध जाते हैं।
अनुराग कश्यप ने सिर्फ इस सत्र में ही नहीं बल्कि कई बार इस बात को दोहराया कि हमारा सिनेमा इतनी तरह की बंदिशों से जकड़ा हुआ है कि फिर सिनेमा बनाना सिर्फ बनाने का काम नहीं रह जाता। उसमें राजनीतिक, सांस्कृतिक झोल से लेकर तमाम तरह की अपनी वर्जनाएं घुस आती हैं। अनुराग की इसी बात को गीतकार नीलेश मिश्र मन की सच्चाइयों को समाज की सच्चाइयों की तरफ शिफ्ट करते हैं और बताते हैं कि कैसे समय के साथ हमारा नजरिया, जरूरतें बदलती चली जाती हैं जबकि सिनेमा में रिश्तों के नाम पर अभी भी एक टाइप बना हुआ है।
(sabhar- veenit kumar)

सिनेमा में स्क्रिप्ट सबसे अहम चीज़ है मेरे लिए

किसी फिल्म (शूल) का मुख्य किरदार (मनोज वाजपेयी) आपसे कहे कि फला किरदार (समर प्रताप सिंह) को निभाते समय अवसाद के कारण मुझे मनोचिकित्सक के प...