हमें मोरलिटी की जकड़न से मुक्त होना होगा : अनुराग कश्यप
मुझे स्त्री-पुरुष संबंध समझ में नहीं आता। मैंने कोशिश भी की है। मैंने महिला पात्र जब भी लिखे हैं, जिन्हें मैं जानता हूं, जिनके साथ मैं बात करता हूं, मेरी जो हिरोइनें पर्सनल लाइफ में रही हैं, वही मेरे फिल्मों में आ गयी हैं। स्क्रीन पर फिल्म में प्रेम दिखते नहीं। वो छूते क्यों नहीं, आंखों में एक्सप्रेशन दिखता नहीँ। वो हाव-भाव उनके हाथो में नहीं दिखता। मैं चाहता हूं कि जो प्रेम है वो दिखना चाहिए।
हमारे सिनेमा में जो दिखता है, वो खुद की मोरैलिटी है। सेल्फ पिटी एक ऐसी बीमारी है, जिसे हमने सदियों से सिलेब्रेट किया है। हम जो छोटी जगहों पर तय कर लेते हैं कि ये तेरी वाली मेरी वाली। वो चली जाती है, पता नहीं चलता। समझने की कोशिशों में व्यर्थ समय नहीं देना चाहिए। ये स्क्रीन पर आ जाए तो बहुत बेहतर होगा। हमारे भीतर अच्छा दिखने की फीलिंग होती है।
इंडियन मेल के बीच प्रॉब्लम रहा है कि ख्याल भी रखेंगे और फैंटेसी भी हो। मैं स्वतंत्र लड़की पसंद करता हूं। हमलोग बहुत इंप्रेशनलेबल होते हैं कि समाज लड़की को किस तरह की पैकेज में देखना चाहता है और फिर हम उसी हिसाब से बंध जाते हैं।
अनुराग कश्यप ने सिर्फ इस सत्र में ही नहीं बल्कि कई बार इस बात को दोहराया कि हमारा सिनेमा इतनी तरह की बंदिशों से जकड़ा हुआ है कि फिर सिनेमा बनाना सिर्फ बनाने का काम नहीं रह जाता। उसमें राजनीतिक, सांस्कृतिक झोल से लेकर तमाम तरह की अपनी वर्जनाएं घुस आती हैं। अनुराग की इसी बात को गीतकार नीलेश मिश्र मन की सच्चाइयों को समाज की सच्चाइयों की तरफ शिफ्ट करते हैं और बताते हैं कि कैसे समय के साथ हमारा नजरिया, जरूरतें बदलती चली जाती हैं जबकि सिनेमा में रिश्तों के नाम पर अभी भी एक टाइप बना हुआ है।
(sabhar- veenit kumar)
anurag kashyap ne kaha hai ki hame morality ke jakadan se mukta hona chahiye aur tumne aaj ke post me likha bhi hai mai bachapan se bhagkar "sabhi tarah ke film dekhta tha " aap sare morality ke jakadan se pahle hi mukta ho chuke ho.bahut khub.
ReplyDeleteis krantikari bachpan ke liye badhai.
- EK PRASHASAK
Actully us samay achhe aur bure Ki pahchan karni aati hi nahi thi aur ab jaan bujhkar pahchan karna hi nahi chahta. Cinema me dube rahna shuru se pasand tha aur ab to yah ek aadat hai.
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