Thursday, April 21, 2016

एक अभिनेता के लिए सबसे अहम चीज होती है स्क्रिप्ट

♦ मानवेंद्र सिंह
 http://bit.ly/1MKDczZ 
OCTOBER 20, 2011




किसी फिल्म (शूल) का मुख्य किरदार (मनोज वाजपेयी) आपसे कहे कि फला किरदार (समर प्रताप सिंह) को निभाते समय अवसाद के कारण मुझे मनोचिकित्सक के पास जाना पड़ा, तो आप कैसा महसूस करेंगे? सबसे पहले हमारा ध्यान उस किरदार की तरफ जाएगा और फिल्म के संवाद हमारे जेहन में कौंधने लगते हैं। जहनी तौर पर मैं ‘शूल’ के एक संवाद की याद दिलाना चाहूंगा कि कैसे एक व्यक्ति के अंदर व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध पनपता है और वह अपनी जिंदगी तिल-तिल जीने के लिए मजबूर हो जाता है।

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मंजरी (रवीना टंडन) – ‘इतनी ही भड़ास निकालनी थी तो जान से क्यूं नहीं मार देते बच्चू यादव को?’
समर प्रताप सिंह (मनोज वाजपेयी) – ‘क्यूंकि डरते हैं हम। आज जिंदगी में पहली बार डर लगा है हमें। हम जाके गोली मार देंगे, चढ़ जाएंगे फांसी। हमको मरने से डर नहीं लगता है, लेकिन डरते हैं आपके लिए। साला गधा थे, जो पुलिस में आये और आके शादी कर ली। अगर आप हमारी जिंदगी में नहीं होतीं न मंजरी जी, तो वो साला भड़वा बच्चू यादव आज 10 फुट जमीन के नीचे गड़ा होता।’
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‘शूल’ में मनोज वाजपेयी के अभिनय से भला कौन दर्शक मुतास्सिर नहीं हुआ होगा और किसके मस्तिष्क में शूल की चुभन नहीं पैठी होगी। चार्ली चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वे पहले नाटकों में काम करते थे और काम के दौरान उनके किरदारों की छाप वास्तविक जीवन को भी गहरे स्तर पर प्रभावित करती थी। जिसे नहीं करती, वह कलाकार नहीं है।

18 अक्‍टूबर की शाम जेएनयू में मनोज वाजपेयी इन्‍हीं शब्दों के साथ हमसे रूबरू हो रहे थे। बिहार और उत्तर प्रदेश के यूथ अपने हीरो से मिलने के लिए बेताब नजर आ रहे थे और उन्हें बतौर हिंदी सिनेमा के चरित्र अभिनेता नहीं बल्कि बिहारी हीरो के रूप में ज्यादा तवज्जो दी जा रही थी। मजे की बात यह कि मनोज वाजपेयी को जेएनयू से कुछ इस कदर जोड़ा जा रहा था कि इनके भाई ने यहीं से पढ़ाई की और उन दिनों मनोज उनसे मिलने आया करते थे। गंगा ढाबा व गोदावरी ढाबा पर बैठकें हुआ करती थीं। पुराने दिनों की यादें ताजा करते हुए मनोज वाजपेयी ने बताया कि खालीपन के दिनों में वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाले अपने दोस्तों के साथ मुखर्जी नगर में रहते थे और यहीं से थियेटर की शुरुआत की। मनोज वाजपेयी और शाहरुख ने साथ-साथ बैरी जॉन का स्कूल ज्वाइन किया। लेकिन बैरी जॉन के स्कूल से निकल कर शाहरुख जहां न्यू इकनॉमिक पॉलिसी के बाद के भारत में एलीट क्लास और इंडियन यूथ का आइकॉन बन गये, ग्लोबलाइज्ड मार्केट में शाहरूख, कोक और सेक्स बिकने लगा..। इसके बरक्स मनोज बाजपेयी की छवि रफ, बेसिक अनुभूतियों वाले कलाकार व हार्डकोर एक्टर की बनी, न कि खांटी इंटरटेनर की।

कहानी और कंटेंट पर बातचीत करते हुए मनोज वाजपेयी ने बताया कि वे स्क्रिप्ट पर सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। स्क्रिप्ट के आधार पर ही वे फिल्मों का चुनाव करते हैं। अपनी पहली फिल्म (बैंडिट क्वीन, 1994) करते हुए एक नये अनुभव से गुजरना उन्हें बहुत ही दिलचस्प लगता है। शूटिंग के दौरान शेखर कपूर उनसे कहते हैं कि ‘तुम जो करना चाहते हो वह करो, और यह भूल जाओ कि स्क्रीन पर कैसे दिखोगे’। हिंदी सिनेमा की मार्केट पालिसी के बारे में बात होने पर वे मानते हैं कि हमें प्रोड्यूसर का भी ध्यान रखना होगा, जिसने फिल्म पर पैसे लगाये हैं और फिल्म वितरकों के जेहन का भी ख्याल रखना होगा, जो हमारी फिल्म को उत्पाद बनाकर मार्केट में उतारेगा। इन सारी बातों से सामंजस्य बिठाकर ही हम आज के सिनेमा को खाद-पानी दे सकते हैं। भोजपुरी सिनेमा के प्रश्न पर मनोज ने अपनी चिंता जतायी कि आज ऐसी फिल्में कंटेंट और स्पेस के स्तर पर दिवालियेपन की स्थिति में हैं। भोजपुरी फिल्मों में बेहतरीन स्क्रिप्ट का अभाव है, इसलिए बतौर अभिनेता वे ऐसी फिल्मों से दूर हैं।

हिंदी सिनेमा में कमोबेश बिहार की गरीबी और राजनीति को प्रोजेक्ट किया जाता है, जबकि ऐसा केवल इसलिए होता है कि एक फिल्मकार इस प्रदेश की संवेदनशीलता को भुना कर पैसे बनाने को केंद्र में रखता है, जेएनयू की यूथ के ऐसे सवालों से भी मनोज वाजपेयी को इत्तेफाक रखना पड़ा। बिहार एक पोलेटिकली साउंड स्टेट है, क्या आप भविष्य में राजनीति में कदम रख सकते हैं – इस पर मनोज वाजपेयी का मानना था कि भविष्य में क्या होगा, यह हम नहीं जानते, लेकिन अभी तो फिलहाल कोई इरादा नहीं है राजनीति में जाने का। जेएनयू की उत्तर भारतीय जनता से ऐसे प्रश्न भी सुनने को मिले कि ‘क्या मैं आपकी तरह हीरो बन सकता हूं?’

बकौल मनोज वाजपेयी असल जिंदगी में वे भी एक आम इंसान की तरह हैं। सामाजिक, राजनीतिक और सांस्‍कृतिक तीनों ही स्‍तर पर सभी किस्‍म के संघर्ष के बीच एक अभिनेता के स्तर पर वे खुद को अनगिनत किरदारों के लिए तैयार करते हैं। समानांतर सिनेमा आंदोलन के बीते दौर के साथ हमें यह मानने से कतई इनकार नहीं करना चाहिए कि मनोज बाजपेयी वर्तमान समय के अलहदा कलावादी सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर हैं, जिनमें अपने समय की पीड़ा भी है और अपने समय के सच को उजागर करने की असीम संभावनाएं भी। बहरहाल जगजीत सिंह के चंद हर्फों ‘कोई दोस्त है न रकीब है तेरा शहर कितना अजीब है’ के साथ मनोज बाजपेयी की आने वाली फिल्म ‘चिटगांव’ के इंतजार में…!!

Monday, April 18, 2016

आईडिया क्राइसिस का नायाब नमूना है फिल्म फैन

शाहरुख़ खान की फिल्म फैन का पोस्टर 

यह नाइन्टीज में 93-94 का साल रहा होगा. शाहरुख़ खान से मेरा पहली बार साबका उनकी फिल्म 'बाजीगर' और 'डर' की वजह से पड़ा. हुआ यूँ की हमारे पड़ोस में एक भईया रहते थे और वे शाहरुख़ के बड़े जब्बर फैन थे. मतलब इस हद तक कि शाहरुख़ फिल्म में जिस तरह का चश्मा पहनेगा या जिस तरह के कपड़े पहनेगा...सब उन्हें चइये ही चइये होता था. इवेन यहाँ तक की शाहरुख़ जिन प्रोडक्ट्स के ऐड करता था तुरंत उसे वह घर ले आते थे. घर में कई बार इस बात पर भयानक कलह मचना स्वाभाविक सी बात थी.

घर से 15-20 किलोमीटर दूर लालगंज साईकिल से फिल्म देखने जाते थे. उसकी फिल्म रिलीज होने पर टॉकीज में फर्स्ट शो देखना उनकी आदत में शुमार था. एक बार तो मामला बड़ा गंभीर था. हुआ यूँ की एक फिल्म में शाहरुख़ ने मोपेड पर कोई गाना शूट किया और भाई फिल्म देखकर घर आये. कमरे में अंधेरा करके चद्दर तान कर लेट गए...मास्टराइन चाची (उनकी माँ) खाने के लिए पूछने आयीं...!! भाई साफ़ मुकर गए की खाना नहीं खाऊंगा...भूख नहीं है...!!

माएं वैसे भी समझदार हुआ करती हैं. वो समझ गयीं कि ये नाटक कोई ज़िद पूरा करवाने का पहला चरण है. उन्होंने अंततः पूछ ही लिया कि 'का बात हव..आखिर कुछ बतइबा...??' भाई ने मोपेड का नाम बताया और कहा कि जब तक खरीद कर घर नहीं आएगी खाना नहीं खाऊंगा. घर में अगर्द मच गया. खैर मामले का पटाक्षेप तब हुआ जब बात मास्टर साहब तक पहुंची. उन्होंने फ़रमान जारी किया कि 'इ चाहे खाना खायं चाहे न खायं...हम कुच्छ न ले आइब...ढेर दिक्कत होय त जांय कमायं...जवन मन करय तवन करयं...!!'

खैर यह किस्सा इसलिए सुनाना पड़ा कि आज कतई न जाने का मन बना चुकने के बावजूद जबरदस्ती 'फैन' देखनी पड़ी. फिल्म में कई बार सोया-जागा महज इसलिए कि कितनी जल्दी यह कहर बरपा हो जाये. जिंदगी में 'चक दे' के बाद शाहरुख़ की यह दूसरी फिल्म देखी.

एक दर्शक के लिए एक तरीके से कहा जाये तो यह टार्चर होना ही है. मैं भारतीय सिनेमा के सन्दर्भ में इस फिल्म के बारे में बस इतना कहूँगा कि 'आईडिया क्राइसिस' क्या होता है इससे बेहतरीन उदाहरण दूसरा नहीं होगा...!! इस तरह की फ़िल्में इंडस्ट्री में महज इसलिए एक्झिस्ट करती हैं क्यूंकि आपके पास आवारा पूंजी की ताकत है...!!

फिल्म समीक्षा के गिरते हुए बदहाल दौर का भी नायाब नमूना है यह फिल्म. उन "महान" पत्रकारों के क्रिटिक स्तर और सेंस पर हंसकर टाल जाने के सिवाय आपके पास कोई चारा नहीं बचता जिन्होंने इसे चार और साढ़े चार स्टार से नवाजते हुए इज्जत बख्शी है...!!

डिस्क्लेमर- किंग खान के जबरा फैन भाईयों से मुआफ़ी के साथ...जय राम जी की...!! और हाँ यहाँ स्टोरी नहीं बताऊंगा आप स्वयं जाकर झेलें.
स्टार- **

Sunday, April 17, 2016

बरास्ते उड़ जायेगा वाया ले चल पार वाया मसान

डा. मानवेंद्र सिंह  
यूँ जुड़ा सिनेमा से रिश्ता
'मसान' का दौर एक्चुली तब शुरू हुआ जब मैं पुणे में एमबीए के दौरान सिंबायोसिस से मार्केटिंग कम्युनिकेशन के कोर्स में था. इसमें एडवर्टाइजिंग के चलते फिल्म एप्रिशियेशन का भी क्लास था. हमें पढ़ाने के लिए एफटीआईआई के डीन समर नखाते आये थे. उन्होंने 'पथेर पांचाली' दिखायी और फिल्म की बहुत ही अलग तरीके से समीक्षा की. जो मैंने आज तक नहीं देखी थी. तब मैं वेस्टर्न सिनेमा बहुत देखता था. बचपन में मेरी बहनों का पैरेलल सिनेमा की तरफ बहुत रुझान रहा है. नाइंटीज में हर संडे को दूरदर्शन पर आने वाली फ़िल्में देखता. तब उतनी समझ नहीं थी. लेकिन इस तरह की फिल्मों को लेकर अंदर से एक ट्यूनिंग हो गयी. श्याम बेनेगल गोविन्द निहलानी जैसे फिल्मकारों का बहुत प्रभाव था. इनसे मैं बहुत ज्यादा कोरिलेट करता था. फिर जब ये लेक्चर हुआ तो सिनेमा को आर्ट फॉर्म की तरह देखने लगा. मेरा सिनेमा देखने का नजरिया बदल गया. समर नखाते ने एक्सप्लेन किया कि कैसे टाइम जंप्स हो रहे हैं. 'पाथेर पांचाली' का क्या सिंबॉलिक नेचर रहा है? जैसे कबूतरों का उड़ने का क्या मतलब होता है? डायरेक्टर ने इन्हें क्या सोच के डाला है? ये सोचकर अचंभा हुआ कि फिल्म मेकिंग में इतनी सोच जाती है. मेरे लिए यह एक टर्निंग पॉइंट था. तब हमारा पैशन फॉर सिनेमा (ब्लॉग) का दौर शुरू हो गया था. वो हमारे लिए एक अल्टरनेट लाइफ था. क्यूंकि तब मैं महिंद्रा में नौकरी शुरू कर चुका था. उस वक्त ऐसा लगता था कि एक आपकी नाइन टू फाइव जिंदगी है. दूसरी यह एक और पैरलल जिंदगी चल रही है. सिलसिला पढ़ने से शुरू हुआ, फिर कमेंटिंग, फिर लिखना शुरू किया और वहां से एडीटर तक पहुंचा.

मसान की जर्नी
जब हमने शुरु किया तब फिल्म का नाम था 'रांण सांण सीढ़ी सन्यासी'. ये जो दोहा है, 'इनसे बचे तो भोगै काशी'. ये चार किरदार स्टीरियो टाइप्स हैं जिसे सोसायटी नकारती है. ये शायद एक तरीके का इस्केप चाहते हैं. वहां से 'मसान' की शुरुआत हुई. एक्चुली हमारे पास बहुत सारे ऑप्शन थे. खैर 'रांण सांण सीढ़ी' इस दौर में तो मतलब भगा ही देते! बनाने ही नहीं देते. हालांकि सभी को इवेन प्रोड्यूसर्स को भी नाम पसंद था. लेकिन सेंसर इसे कहाँ तक अलाऊ करेगा? इसके बावजूद ए सर्टिफिकेट! अरे उसमें तो पता है आपको! अडल्ट रेटिंग के बाद भी साला और साली म्यूट करने को बोला गया. खैर कुछ टाइम के बाद हमने सोचा कि विमल रॉय के फैन हैं और 'बंदिनी' से बहुत इन्फ्लुएंस भी हैं. तो 'ले चल पार' नाम रखते हैं. फिर स्वानंद किरकिरे ने 'मसान' टाइटल दिया. हालांकि मेरे लिए वो पर्याप्त शब्द नहीं है. लेकिन फिर भी 'मसान' में एक रिद्म है जिसमें सारी बातें आ रही थीं. फ़्रांस के प्रोड्यूसर्स को 'मसान' पसंद आया. उन्होंने बोला कि इंग्लिश में नहीं करेंगे, न इसको फ्रेंच में लिखेंगे. इसको सिर्फ 'मसान' ही रखेंगे. फ्रेंच में ट्रांसलेट नहीं किया. पूरे यूरोप वगैरह में जहाँ रिलीज हुई इसे 'मसान' ही रखा. 'मसान' सुनते हैं तो लगता है कि श्मशान घाट के बारे में है. हालांकि फिल्म उससे कहीं और आगे जाती है.

रिसर्च का दौर  
हमने रिसर्च के टाइम बहुत सोचा. मैं और वरुण बनारस में 40 दिन रुके. हमने इतना कुछ किया कि ऑडियो ट्रांसक्रिप्ट भरे पड़े थे. उनको ले-लेकर फिर हर किरदार को उसमें पिरोना. नॉट जस्ट डोम का, इवेन देवी का किरदार भी. हमने फोकस ग्रुप किया लड़कियों के साथ जो छोटे शहरों की लड़कियां थीं. उनकी सेक्सुअलिटी पर मैंने बात करने को कहा. सब कुछ वैसा जैसा बनारस में होता है. इसका एक क्लासिक इक्जांपल है. जब देवी और उसके पिता झगड़ा करते हैं तो बात आती है माँ की. 'तुम्हे याद भी है तुम छः बरस की थी ! छः बरस के बच्चे नहीं होते हैं क्या ! तो आपको एक्जाम के पर्चे जांचने थे !' मैंने ये डॉयलाग बहुत हल्के से छोड़ा. वो डेलिव्रेट इसलिए था, अगर उसका मैं एक सीन बनाता तो पता नहीं कैसा होता? क्यूँकि आप जब कम सुनते हैं या कम बोला जाता है तो आपको लगता है कि इसकी कितनी सारी गिरहें हैं. कितना कुछ है जो हम नहीं जानते हैं और आपके अंदर भी एक फिल्म बन जाती है. आप इमैजिन करने लगते हैं. वो फिल्म ऑडिएंस के अंदर बनने देना चाहिए. उनको सोचने देना चाहिए. क्यूंकि जब वो सोचते हैं दैट इज द एंटरटेनमेंट ! बहुत बारीक-बारीक चीजों के लिए हमने काफी मेहनत की. रियलिटी को हम सिर्फ रेप्लीकेट ही कर रहे थे. कहीं यह कोशिश नहीं थी कि उसको स्टायलाइज किया जाये. जैसे देवी के किरदार या उसकी स्टायलिंग के लिए हमने ऑब्जर्व किया कि वो सैंडिल पहनती है. उसके हाथ में एक वॉलेट रहता है जो लड़के कैरी करते हैं. वो सोच इसलिए थी क्यूँकि अगर एक बाप बिना माँ की लड़की को रेज करता है तो कैसे बड़ी होगी? उसके एकदम टिपिकल लड़कियों वाले कपड़े नहीं हैं. हमने उसे एक बैग दिया. पूरी फिल्म के दौरान देवी अपना बैगेज कैरी करती है. दीपक का जैसे आप देखेंगे वो एम्ब्राइड्रेड शर्ट पहनता है. ये आपको छोटे शहरों में ही दिखेगा. उनको प्रॉपर्ली एज करना. जैसे पॉवर के जूते हैं. छोटे शहरों में इसे लड़के पहनते ही पहनते हैं. मैंने एक साल पहले वो जूता खरीदा. क्यूंकि मुझे वही जूता चाहिए था और मैंने एक साल वो जूता पहना ताकि मैं एज कर सकूँ और फिल्म शूट में वो दीपक पहना. क्यूंकि मैं नहीं चाहता था वो नये-नवेले दिखें. जैसे अमूमन फिल्मों में दिखाते हैं सब कुछ नया एक दम पॉलिश्ड. दीपक नीले कपड़े पहनता है. ये हमारे रिसर्च के टाइम आया था कि डोम जो काम करते हैं नीले कपड़े ज्यादा पहनते हैं. क्यूंकि नीला कलर यमराज का कलर होता है.

मल्टी लेयर्ड मसान
शूटिंग में भी हमने पूरी डीटेलिंग की. एक शॉट में हम दिखाते हैं दीपक एक छोटे से घर में आता है. फिर वो अम्मा से बात करता है. अम्मा पानी देती है. पैर धोता है और उसी सिक्वेंस में हमने कट नहीं किया है, बड़ी सी सीढ़ीनुमा रास्ते से सीढ़ियाँ चढ़ता है. भाई को उठाता है. हमें ये दिखाना था कि वो कैसे अजीब से एक कटघरे में क्लास्ट्रोफोबिक एटमॉस्फियर में है. फिर हमने उसकी दुनिया को श्मशान घाट में ओपन आउट किया. हमारा वही आईडिया ही था. उसका दायरा खुलता है तो सिर्फ इस घाट पर खुलता है. 'मन कस्तूरी' वाले शॉट को जैसा मैं चाहता था वैसे वह डीरेक्ट हुआ नहीं वो. रात का समय था ठंढ में और वह अक्चुली गंगा में वो डूब रहा है. वो शूट बहुत डिफिकल्ट था. उसमें ये था कि दीपक गंगा में कूदता है. अंगूठी ढूंढने की कोशिश करता है और उसे मिलता नहीं है. तो गाने के बोल भी वैसे ही हैं, 'बिखरे-बिखरे छंद सा टहले, दोहों में ये बंध न पाये'. मेले वाला शॉट तो कंप्लीटली हमने रियल शूट किया था. दुर्गापूजा के टाइम में शूट किया. उसमें कुछ भी क्रियेटेड नहीं था. हम लोगों ने उसे छुप-छुप के जाकर के शूट किया था. घाट को हमने रिक्रिएट किया. एक और अनयूज्ड खाली सा घाट है नंदेश्वर घाट, उसे हमने मणिकर्णिका बनाया.

साहित्य का पुट और निर्गुण संगीत
वरुण इसमें साहित्यिक समावेश करना चाहते थे जो मुझे भी बहुत सही लगा. वेस्ट में लिटरेचर को सिनेमा में बहुत ज्यादा यूज करते हैं. कितने सारे एडाप्टेशन होते हैं. उनके यहाँ तो एक पट्टीकुलर कैटेगरी ही है...'बेस्ट एडाप्टेशन स्क्रीन प्ले' की. लेकिन हमारे यहाँ अपनी ही धरोहर को लेकर कोई कुछ नहीं कहता. हमारी फिल्म से अगर इस दिशा में कुछ हो रहा था तो ये मेरे लिए भी खुशी की बात थी। म्यूजिक में निर्गुण का एक फ्लेवर लाने की बाकायदा कोशिश की गयी था. वरुण और मैं दोनों कुमार गंधर्व के बहुत बड़े फैन हैं. इसलिए आपको उसमें निर्गुण की शैली दिखती है।

मसान का क्राफ्ट 
जैसा कि आपने कहा फिल्म में क्लोजप्स का इस्तेमाल बहुत कम हुआ है, मिड शॉट या पैन शॉट का प्रयोग ज्यादा है. तो इन्फैक्ट मैं कहूँगा कि मेरे में टेक्निकल फिनिश नहीं है. मैं ये मानता हूँ मेरा ये कंसियस चॉइस है. बहुत कुछ कैमरा के बारे में पढ़कर समझने के बाद भी मेरे ऊपर ये हावी हो जाता है कि मैं किस तरह एक बढ़िया फिल्म निकालूं. लेकिन मेरे लिए ज्यादा जरुरी यह है कि किस तरीके से अपनी बात कह सकूँ. बजाय तकनीक के मेरे लिए कहना ज्यादा इम्पार्टेन्ट है. नैरेटिव फॉर्म बहुत ज्यादा इम्पार्टेन्ट होता है. फिल्ममेकिंग का मेरा अपना एक किमियॉटिक प्रॉसेस है. तकनीक के मामले में मुझे अविनाश पर कंप्लीट फेथ था. हालांकि जब एक्स्ट्रीम क्लोजप शॉट देते हैं तो ये जबर्दस्ती की अंडरलाइनिंग होती है. फिल्म में डिस्टेन रखने के लिए हमने मैक्सिमम मिड शॉट ही रखे हैं. 

आंसरेबल हूँ अपने प्रोड्यूसर्स के प्रति
हम लोगों को यह फिल्म कम से कम बजट में बनानी ही बनानी थी. हालांकि ये फिल्म बहुत डिफिकल्ट है. हमने सोचा था कि फिल्म फेस्टिवल में अगर सेलेक्शन हो गया तो इसके बज़ से मार्केटिंग करेंगे. ये स्टार्टिंग से मेरी सोच थी. पता है आपको फिल्म के बजट का चार गुना मार्केटिंग स्पेंड लगता इतना बज़ लाने के लिए और उसके रिटर्न्स कुछ भी नहीं मिलते. मैं उस सोच को नकारता हूँ जो कहते हैं कि फ़िल्म तो बस मैं अपने लिए बना रहा हूँ

http://epaper.navbharattimes.com/details/38829-69507-1.html
और मैं ऐसी ही फिल्में बनाऊंगा. जबकि मैं आंसरेबल हूँ अपने प्रोड्यूसर्स के प्रति, चाहे जितना भी मैं अपना विजन रखूँ. क्यूंकि कहीं न कहीं एक नीड रेस्पोंसिबिल्टी होनी चाहिए जिन्होंने फिल्म में पैसे डाले हैं. इसलिए हमने हर वक्त एक बैलेंस रखा है कि आप एक आर्टि-शार्टी बोरिंग फिल्म नहीं देखेंगे. मेरी एकेडमिक लाइफ और कॉर्पोरेट कैरियर ने इस फिल्म को बनाने में बहुत कुछ हेल्प किया है.

सिनेमा में स्क्रिप्ट सबसे अहम चीज़ है मेरे लिए

किसी फिल्म (शूल) का मुख्य किरदार (मनोज वाजपेयी) आपसे कहे कि फला किरदार (समर प्रताप सिंह) को निभाते समय अवसाद के कारण मुझे मनोचिकित्सक के प...