Wednesday, October 19, 2011

जे.एन.यू. की एक शाम मनोज वाजपेयी के साथ....


किसी फिल्म (शूल) का मुख्य किरदार (मनोज वाजपेयी) आपसे कहे कि फला किरदार (समर प्रताप सिंह) को निभाते समय अवसाद के कारण मुझे मनोचिकित्सक के पास जाना पड़ा, तो आप कैसा महसूस करेंगे? सबसे पहले हमारा ध्यान उस किरदार की तरफ जायेगा और फिल्म के संवाद हमारे जेहन में कौंधने लगते हैं. ज़हनी तौर पर मैं 'शूल' के एक संवाद की याद दिलाना चाहूँगा कि कैसे एक व्यक्ति के अन्दर व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध पनपता है और वह अपनी ज़िन्दगी तिल-तिल जीने के लिए मजबूर हो जाता है.

मंज़री (रवीना टंडन)- 'इतनी ही भड़ास निकालनी थी तो जान से क्यूँ नहीं मार देते बच्चू यादव को'
समर प्रताप सिंह (मनोज वाजपेयी)- 'क्यूंकि डरते हैं हम ,
        आज  ज़िन्दगी में पहली बार डर लगा है हमें 
        हम जाके गोली मार देंगे चढ़ जायेंगे फांसी 
       हमको मरने से डर नहीं लगता है,लेकिन डरते हैं आपके लिए 
       साला गधा थे जो पुलिस में आये और आके शादी कर ली 
      अगर आप हमारी ज़िन्दगी में नहीं होतीं  न मंज़री जी तो वो साला भडवा बच्चू यादव 
      आज 10 फूट ज़मीन के नीचे गड़ा होता'

'शूल' में मनोज वाजपेयी के अभिनय से भला कौन दर्शक मुतास्सिर नहीं हुआ होगा और किसके मस्तिष्क में शूल की चुभन नहीं पैठी होगी. चार्ली चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वे पहले नाटकों में काम करते थे और काम के दौरान उनके किरदारों की छाप वास्तविक जीवन को भी गहरे स्तर पर प्रभावित करती थी, जिसे नहीं करती वह कलाकार नहीं है. 

               बीती शाम जे.एन.यू. में मनोज वाजपेयी इन्ही शब्दों के साथ हमसे रूबरू हो रहे थे. बिहार और उत्तर प्रदेश की यूथ अपने हीरो से मिलने के लिए बेताब नज़र आ रही थी और उन्हें बतौर हिंदी सिनेमा के चरित्र अभिनेता नहीं बल्कि बिहारी हीरो के रूप में ज्यादा तवज्जो दी जा रही थी. मज़े की बात यह कि मनोज वाजपेयी को जे.एन.यू. से कुछ इस कदर जोड़ा जा रहा था कि इनके भाई ने यहीं से पढ़ाई की और उन दिनों मनोज उनसे मिलने आया करते थे. गंगा ढाबा व गोदावरी ढाबा पर बैठकें हुआ करती थीं. पुराने दिनों की यादें ताज़ा करते हुए मनोज वाजपेयी ने बताया की खालीपन के दिनों में वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाले अपने दोस्तों के साथ मुखर्जी नगर में रहते थे और यहीं से थियेटर की शुरुवात की. मनोज वाजपेयी और शाहरुख़ ने साथ- साथ बैरी जोंस का स्कूल ज्वाइन किया. लेकिन बैरी जोंस के स्कूल से निकलकर शाहरूख जहाँ न्यू इकनामिक पालिसी के बाद के भारत में एलिट क्लास और इंडियन यूथ का आइकॉन बन गया. ग्लोबलाइज्ड मार्केट में शाहरूख, कोक और सेक्स बिकने लगा. इसके बरक्स मनोज बाजपेयी की छवि रफ, बेसिक अनुभूतियों वाले कलाकार व हार्डकोर एक्टर की रही है न कि खांटी इंटरटेनर की.

                                         कहानी और कंटेंट पर बातचीत करते हुए मनोज वाजपेयी ने बताया कि वे स्क्रिप्ट पर सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं. स्क्रिप्ट के आधार पर ही वे फिल्मों का चुनाव करते हैं. अपनी पहली फिल्म (बैंडिट क्वीन, 1994) करते हुए एक नए अनुभव से गुजरना उन्हें बहत ही दिलचस्प लगता है. शूटिंग के दौरान शेखर कपूर उनसे कहते हैं कि 'तुम जो करना चाहते हो वह करो, और यह भूल जाओ कि स्क्रीन पर कैसे दिखोगे'. हिंदी सिनेमा की मार्केट पालिसी के बारे में बात होने पर वे मानते हैं कि हमें प्रोडूसर का भी ध्यान रखना होगा, जिसने फिल्म पर पैसे लगाये हैं और फिल्म वितरकों के जेहन का भी ख्याल रखना होगा, जो हमारी फिल्म को उत्पाद बनाकर मार्केट में उतारेगा. इन सारी बातों में सामंजस्य बिठाकर ही हम आज के सिनेमा को खाद-पानी दे सकते हैं. भोजपुरी सिनेमा के प्रश्न पर मनोज ने अपनी चिंता जताई कि आज ऐसी फ़िल्में कंटेंट और स्पेस के स्तर पर दिवालियेपन कि स्थिति में हैं. भोजपुरी फिल्मों में बेहतरीन स्क्रिप्ट का अभाव है, इसलिए बतौर अभिनेता वे ऐसी फिल्मों से दूर हैं.

                                         हिंदी सिनेमा में कमोबेश बिहार की गरीबी और राजनीति को प्रोजेक्ट किया जाता है, जबकि ऐसा केवल इसलिए होता है कि एक फ़िल्मकार इस प्रदेश की संवेदनशीलता को भुनाकर पैसे बनाने को केंद्र में रखता है, जे.एन.यू. की यूथ के ऐसे सवालों से भी मनोज वाजपेयी को इत्तेफाक रखना पड़ा. बिहार एक पोलेटिक्ली साउंड स्टेट है, क्या आप भविष्य में राजनीति में कदम रख सकते हैं, इस पर मनोज वाजपेयी का मानना था कि भविष्य में क्या होगा यह हम नहीं जानते, लेकिन अभी तो फ़िलहाल कोई इरादा नहीं है राजनीति में जाने का. जे.एन.यू. की उत्तर भारतीय जनता से ऐसे प्रश्न भी सुनने को मिले कि 'क्या मैं आपकी तरह हीरो बन सकता हूँ?' 





बकौल मनोज वाजपेयी असल ज़िंदगी में वे भी एक आम इंसान की तरह हैं, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तीनों ही स्तर पर सभी किस्म के संघर्ष के बीच एक अभिनेता के स्तर पर वे खुद को अनगिनत किरदारों के लिए तैयार करते हैं. समानांतर सिनेमा आन्दोलन के बीते दौर के साथ हमें यह मानने से कतई इंकार नहीं करना चाहिए कि मनोज वाजपेयी वर्तमान समय के अलहदा कलावादी सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर हैं, जिनमें अपने समय की पीड़ा भी है और अपने समय के सच को उजागर करने की असीम संभावनाएं भी. बहरहाल जगजीत सिंह के चंद हर्फों 'कोई दोस्त है न रक़ीब है तेरा शहर कितना अजीब है' के साथ मनोज वाजपेयी की आने वाली फिल्म 'चिटगांव' के इंतजार में.......



सिनेमा में स्क्रिप्ट सबसे अहम चीज़ है मेरे लिए

किसी फिल्म (शूल) का मुख्य किरदार (मनोज वाजपेयी) आपसे कहे कि फला किरदार (समर प्रताप सिंह) को निभाते समय अवसाद के कारण मुझे मनोचिकित्सक के प...