Saturday, October 30, 2010

कई साल से कहाँ गुम हूँ

कई साल से कहाँ गुम हूँ
खबर नहीं 
नींद में ढूंढता है बिस्तर मेरा 
हर घड़ी खुद से उलझना 
है मुकद्दर मेरा 
मै ही कश्ती हूँ 
मुझी में है समंदर मेरा.............  

Friday, October 29, 2010

खामोश जिंदगी के कुछ नए अफसाने

अपने बारे में क्या कहूँ, जिंदगी की इस भीड़ भरे जंगल में एक बेसाख्ता तन्हा इंसान, जिसने हमेशा अजनबियों में अपनेपन की तलाश में खुद को खो दिया है| जिंदगी को बहुत नजदीक से देखते हुए भी उसकी खुमारियों से दूर हूँ| साहित्य में गहरी रूचि होने पर, इसने किरोड़ीमल कॉलेज से एम.ए. करा दिया और फिल्मों से इन्तहाई मुहब्बत होने के कारण एम.फिल. करने पर मजबूर कर दिया| बहरहाल अब साहित्य और सिनेमा के बुनियादी अन्तेर्सम्बंधों पर जे.एन.यु. से पी.एचडी कर रहा हूँ| बचपन से ही अपने अन्दर फिल्मों के प्रति गंभीर रचावट और बसावट लगातार महसूस करते हुए, सभी तरह की फ़िल्में स्कूल छोड़कर देखता था| इससे सबसे ज्यादा तकलीफ मेरी माँ को होती थी, उसे लगता था कि उसका इकलौता बेटा बर्बादी के कगार पर पहुँच चुका है| लेकिन पिछले कुछ सालों से मेरी माँ का विश्वास मेरे प्रति लौट रहा है| माँ के इस लौटते विश्वास का कारण आज तक नहीं समझ पाया क्योंकि जीवन के छब्बीसवें वसंत में आज भी फाकेमस्ती बरक़रार है| फिर कहीं यह भावनात्मक (छलावा वश) लगाव तो नहीं..............                     

सिनेमा में स्क्रिप्ट सबसे अहम चीज़ है मेरे लिए

किसी फिल्म (शूल) का मुख्य किरदार (मनोज वाजपेयी) आपसे कहे कि फला किरदार (समर प्रताप सिंह) को निभाते समय अवसाद के कारण मुझे मनोचिकित्सक के प...