Saturday, October 30, 2010

कई साल से कहाँ गुम हूँ

कई साल से कहाँ गुम हूँ
खबर नहीं 
नींद में ढूंढता है बिस्तर मेरा 
हर घड़ी खुद से उलझना 
है मुकद्दर मेरा 
मै ही कश्ती हूँ 
मुझी में है समंदर मेरा.............  

3 comments:

  1. हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
    मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा

    किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
    हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा

    एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
    मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा

    मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
    जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा

    आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
    आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा.........

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  2. A clear and limpid thougth process!!

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