Monday, May 27, 2013

बारिशों के दिन



मेरी नज़्म

मेरे राज़दां
तेरे रुखसार पर
वो नन्हा सा तिल
कभी-कभी
नींद से जगने के बाद भी
मेरे ज़ेहन में
चिपका -सा रह जाता है

तिस पर भी
तुम
चुप क्यूँ हो
बोलो...!!
तुम ही कुछ कहो...!!

जिससे ख़ामोशी का तिलिस्म तो टूटे
सहमे हुए ख्वाबों को
इस बियाबां से निकलने की
कोई सूरत तो नज़र आये

न जाने कहाँ...
सारी हसरतों को
इसने नीलाम सा कर दिया है

लगता है की सब कुछ
खत्म हो रहा है
धीरे-धीरे

और हम लगातार
चुकते से जा रहे हैं
इस बुरे दौर में

लहू की आखिरी बूँद निचुड़ने में
जैसे अब कुछ ही पल शेष हों

ऐसे वक्त में तुम्हारे दो शब्द
शायद उन कुछ पलों के लिए ही सही
जीने की वजह में
तब्दील हो जाएँ...

आमीन...!!




*अक्सर तुम्हारे बारे में सोचता रहता हूँ... तुरंत लिखी गयी कुछ अनबुझ सी पंक्तियाँ न जाने क्यूँ

!!...लग रहा है, नज़्म की शक्ल अख्तियार कर गयीं, सो लगा की तुमसे मुखातिब कराया ज







Wednesday, May 15, 2013

एम.एस. सथ्यू से बातचीत

एम.एस. सत्थ्यु की 'गर्म हवा' से परिचय उन्नीसवें साल की गर्मियों में हुआ, वो भी तब जब किसी काम से फैज़ाबाद जाना हुआ था... होटल में बेहाल इधर-उधर घूम रहा था..जब न रहा गया तो सोचा क्यूँ न गुस्सा टी.वी. पर ही उतारा जाये.. और चैनल बदलने लगा, अचानक दूरदर्शन पर नज़र थम गयी..!! गर्म हवा दिखाई जा रही थी..  'गर्म हवा' सेल्युलाइड पर भारत के नक्शे में तकसीम और बदलाव की दुःखभरी दास्तान का छायांकन भर नहीं है, बल्कि सांप्रदायिक दंगों का इस्पाती दस्तावेज़ है, जिसे सत्थ्यु साहब ने तमाम वर्जनाओं के बीच एक नया अर्थविस्तार दिया.. खैर..!! अपने शोध के सिलसिले में यह अधूरी बातचीत उनसे नागपुर में की गयी और बहुत ही कम समय में साहित्य के सिनेमाई रूपांतरण की प्रक्रिया पर उनसे संवाद हो पाया..बहरहाल पूरी बातचीत विस्तार से फिर कभी पोस्ट करेंगे...!!



सिनेमा बनाते समय आपको इन्सपिरेशन कहाँ से मिलता है? साहित्य से या किसी और माध्यम से?

एम.एस. सथ्यू- साहित्य से ही हमें इन्सपिरेशन नहीं मिलता। ओरिजनली हमें कहीं और से भी मिल सकता है। हम जिससे स्क्रीन प्ले लिख सकते हैं तो अलग-अलग तरीके हैं इसके।

पहले अधिकांशत: फिल्में साहितियक विधाओं पर आधारित होती थीं, जबकि वर्तमान समय में स्थितियां  बदली हैं। इस बदलाव को आप किस प्रकार देखते हैं?

एम.एस. सथ्यू- अच्छी बात है। सिर्फ साहित्य से ही क्यों इन्सपायर हों। साहित्य को रिइन्टरप्रेट करना एक किस्म की फिल्म हो सकती है, पर ओरिजनली आप किसी भी विषय पर फिल्म बना सकते हैं। शायद उस सब्जेक्ट पर कोर्इ उपन्यास ही न हो।

जब आप किसी साहितियक विधा पर फिल्म बनाते हैं, तो क्या आप उस कहानीकार या उपन्यासकार से भी इन्टरैक्ट करते हैं?

एम.एस. सथ्यू- कभी-कभी अगर वो जिन्दा हों तो  (हँसते हैं) अगर वो मर गये हों तो मैं कहाँ से, किससे बात करूँगा। बहुत सी ऐसी कहानियाँ हैं, वो लोग ही नहीं हैं।

वर्तमान समय में जो सिनेमा बन रहा है, उस पर बाजार का काफी दबाव है, इसे आप अच्छा मानते हैं?

एम. एस. सथ्यू- ये तो शुरू से ही ऐसा है। बगैर मार्केट के कोर्इ फिल्म नहीं  बनती है। मार्केट जरूरी है। अगर हम मार्केट के बारे में नहीं सोचते हैं, तो कोर्इ फिल्म नहीं बना सकते। हाँ मार्केट की वजह से ही अगर कोर्इ फिल्म बनाता है तो यह ठीक नहीं। आज पैसे कमाने के लिए बहुत से लोग फिल्म बनाते हैं, तो वो बहुत ही ऊपर-ऊपर की बात होती है, गहरार्इ की कोर्इ बात नहीं होती है उसमें।

भारतीय सिनेमा और पाश्चात्य सिनेमा में साहित्य का हस्तक्षेप किस प्रकार हुआ?

एम. एस सथ्यू- देखिए अभी वेस्टर्न सिनेमा में 'वार एण्ड पीस टाल्सटाय का ले लीजिए, इस पर बहुत अच्छी फिल्में बनी हैं। या स्टीव बेख्त की फिल्में बनी हैं। एलिया कजान जैसे लीक से हटकर फिल्में बनाते हैं और टेनीजी विलियम्स जिन्होंने बहुत से ड्रामे लिखे हैं।

रसिकन बाण्ड की कहानियों पर भी काफी फिल्में बनी हैं...

एम. एस सथ्यू- जी हाँ, इस तरह... वो तो एक दौर था, जहाँ वो बना सकते थे। दूसरा दौर है आज का, जिसमें किसी न्यूज पेपर में आप कोर्इ आर्टीकल देखते हैं, उसके ऊपर एक फिल्म बन सकती है। इन्सपिरेशन तो कहीं से भी आपको मिल सकता है। आप खुद सोच सकते हैं। या आप खुद एक कहानी गढ़ सकते हैं, इसमें क्या है।

भारतीय सिनेमा अभी तक वैश्विक स्तर पर अपनी कोर्इ अलग पहचान क्यों नहीं बना पाया है, जबकि हालीवुड के बाद यह विश्व की दूसरी सबसे बड़ी फिल्म इण्डस्ट्री है। ऐसा क्यों। क्यों इसे अभी तक आस्कर के लिए लम्बा इन्तजार करना पड़ रहा है।

एम. एस. सथ्यू- अच्छा है। नहीं मिले तो। आस्कर को लोग हमारे यहाँ बहुत मान्यता देते हैं। हमारी समझ में नहीं आ रही है यह बात। जबकि आस्कर कोर्इ बहुत बड़ी चीज नहीं है।

आपने 74 में 'गर्म हवा बनायी थी। आज वैसी फिल्में क्यों नहीं बन रही हैं ?

एम. एस. सथ्यू- वो तो उन लोगों से पूछिये, जो लोग सिनेमा बना रहे हैं , (हँसते हैं) वो एक दौर था।

वर्तमान समय में आप किस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं? 

एम. एस. सथ्यू- एक नर्इ फिल्म बनी है। रिलीज होने वाली है। उसका फाइनल स्टेज कुछ टेक्नालाजी की वजह से जिसमें अभी डाल्बी साउण्ड आ गया है, तो उसमें थोड़ा समय लग रहा है।

फिल्म का नाम ?

एम. एस. सथ्यू- 'इज्जोरू 'ये फिल्म कैनेडियन लैंग्वेज में है।

कलात्मक फिल्मों के बारे में आपकी क्या राय है?

एम. एस. सथ्यू- कोर्इ आर्ट फिल्म नहीं होती है। अच्छी फिल्में होती हैं, बुरी फिल्में होती हैं बस। कोर्इ आर्ट वार्ट के चक्कर में मत पडि़ये। कोर्इ आर्ट सिनेमा करके कहीं नहीं होती हैं। दुनिया में ही नहीं है वो।

जी बहुत-बहुत धन्यवाद!



सागर सरहदी से बातचीत


सागर सरहदी से मैं इसके पहले कभी नहीं मिला था, लेकिन बतौर फ़िल्मकार मैं उन्हें ज़हनी तौर पर बहुत पसंद करता था... अब भी करता हूँ... जिन्होंने 'बाज़ार' देखी होगी, उन्हें सरहदी साहब के जूनून और सिनेमैटिक क्राफ्ट दोनों का अंदाज़ा बखूबी होगा... 'बाज़ार' के बारे में जब बात चली तो सरहदी साहब ने बिना किसी हीला-हवाली के स्वीकार किया कि इस फ़िल्म ने उन्हें बीस साल पाला है.. सागर सरहदी जितने अलहदा   फ़िल्मकार हैं, उतने ही खुबसूरत किस्सागो व इंसान भी हैं.. उनसे यह एक अनौपचारिक बातचीत का सिलसिला भर है, जिसे साक्षात्कार की शक्ल अख्तियार करने की कोशिश की गयी है.. बहरहाल सागर सरहदी  बम्बई में हुई गुफ़्तगू से मुखातिब होते हैं...!      

                                                  
     सिनेमा अपने वैशिष्टय में साहित्य से किस प्रकार भिन्न है?

सागर सरहदी- सिनेमा में सबसे पहले यह मान के चलना चाहिए कि यह विधा सबसे अलग है। राजेन्द्र सिंह बेदी ने एक बार कहा था कि 'जो सिनेमा है, वह short story के करीब है। साहित्य की जब बात होती है, तो उसमें नाटक भी आता है और नावेल भी आता है। इनसे हमें cinematic subject जरूर लेना चाहिए। लेकिन शुरू में हमें भी पता नहीं चला था। हम शुरू में बहुत मुतासिसर हुए थे, जब बेदी साहब ने कहा कि सिनेमा कहानी के बहुत करीब है, तो हमने कहा कि ये तो बहुत अच्छा मसला है, जिसमें पूरा subject ही आ जाता है, सिनेमा से सम्बनिधत क्योंकि तब मैं short story writerथा।

आप अपनी कहानियों के बारे में थोड़ा बतायें, जो आपने उस दौरान लिखी थी।

सागर सरहदी- मेरी कहानियों का एक संग्रह है 'जीव जनावर' जो हिन्दी में छपी है। आपको मिले तो पढ़ लीजिए। राजकमल ने छापा है... बाद में हमने पढ़ा सोचा। पहले सिनेमा के बाहर हम लोग फिल्में देखते थे। लेकिन जब जरूरत पड़ी, तो हम फिल्मों में आ गए और खुद लिखने लगे। बाद में पता चला कि इसका साहित्य से, शास्त्र से, नाटक से कोर्इ सम्बन्ध नहीं है। ये एक अजीब सी सेनिसबिलिटी थी, जिससे एक गंभीर सी चीज पैदा हो गयी है, जो पिछले दो सौ साल के अन्दर फैली है। ये मीडियम या ये जो विधा है, मैं इसको बोलता हूँ सबकांशस का मीडिया है। यानि जब आप कहानी या नावेल में लिख रहे हों कि 'शाम हो रही थी, वो गुजर रहा था, ये था, वो था तो आप दूर से महज इसका वर्णन कर रहे होते हैं। हम लोग उसका एक शाट लेंगे-जो शाम हो रही थी, उसमें सब कुछ रंग, रूप, सज्जा सब आ जाता है। दूसरी बात यह है कि जो लफ्ज हैं, वो सिनेमा में रूकावट डालते हैं। मुझे इसलिए साइन किया जाता है कि मैं अच्छे डायलाग लिखता हूँ और मैं यह सबसे बोलता हूँ कि ये सिनेमा में रूकावट डालते हैं। एक अच्छा डायलाग लिखना जो है, वह सिनेमा को रोकता है। सिनेमा के टोटली विजन को देखें, तो इस मुल्क में तीन तरह के लोग हैं- एक तो वे लोग जो सत्यजीत रे जैसे हैं, जो इतने बड़े हैं कि उनको बड़ा कहना भी बहुत कम है क्योंकि उनकी फिल्मों की सेनिसबिलिटी बहुत बड़ी है। इसलिए उन्होंने 'पथेर पांचाली या जितनी फिल्में बनायी हैं, वो एक से बढ़कर एक बनकर आयी हैं। दूसरी तरफ एक तरह का ये व्यावसायिक सिनेमा जिसमें सिर्फ डॉयलाग, प्लाटबाजी, सिम्पलीफिकेशन और इण्टरटेनमेण्ट पहले गाने से ही जैसे शुरू हो जायेगा, बिना किसी परपज के। वहाँ वो लड़की सुन रही है कि लड़का गा रहा है और लड़की गा रही है, तो लड़का सुन रहा है। दूसरे-तीसरे सीन में मुलाकात हो जाती है, तो शर्माते हैं, भागते हैं। इसमें कहीं कोर्इ भाव नहीं दिखता है। ये सारी प्लाटबाजी जो है, इससे सिनेमा का कोर्इ सम्बन्ध नहीं है। व्यावसायिक सिनेमा में इस तरह का सिम्पलीफिकेशन नहीं किया जाना चाहिए। हमारे व्यावसायिक सिनेमा में मैं समझता हूँ कि फिल्मालय शुरू में जब आया था, उसमें सुबोध मुखर्जी थे। वे क्या करते थे कि तेरह गाने पहले तैयार कर लेते थे, फिर राइटर को बोलते थे किे situation को जोड़ो और इस प्रकार वे फिल्म बनाते थे। उसमें ज्यादातर शम्मी कपूर हीरो हुआ करते थे और उनको उन दिनों रिबेल स्टार माना जाता था। वे क्या रिबेल करते थे, ये आज तक समझ में नहीं आया।

साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंध पर आप क्या सोचते हैं?

सागर सरहदी- मैं समझता हूँ, दुश्मन हैं एक दूसरे के। ये और बात है कि किसी ने एक नावेल पर अच्छी फिल्म बनायी। कर्इ लोगों ने शेक्सपीपर के नाटकों को लेकर अच्छी फिल्में बनायी हैं लेकिन वो केवल स्टडी के लिए रह गयी हैं।

यानि आपके कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य में सिनेमा का हस्तक्षेप और सिनेमा में साहित्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

सागर सरहदी- नहीं हस्तक्षेप की बात नहीं है। क्या है कि अगर मेरा बैकग्राउण्ड साहित्य का है, जैसे मैं नाटकार हूँ, तो मैं जो फिल्में बनाऊँगा उसमें कुछ अच्छी बातें कह सकता हूँ। क्योंकि मेरा इतना बड़ा एक्सपीरिएंश है, दुनिया के लगभग सारे नाटक पढ़े हुए हैं। बेसिकली आपके अंदर अगर इतना रचाव-बसाव है कि जिसमें संगीत, साहित्य रोमांस और जिन्दगी का एक्सपीरिएंश है, तो आप निशिचत तौर पर एक बेहतर फिल्म बना सकते हैं। आप उसे काट नहीं सकते, अलग नहीं कर सकते।

बतौर सागर सरहदी यदि किसी साहित्यिक विधा पर फिल्म बनाते हैं, तो उसकी रचना प्रक्रिया क्या होगी ?

सागर सरहदी- तो वो अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। अगर किसी आदमी के वश में इतनी बड़ी बात हो और उसके vision में आये कि मैं इस पर एक out standing फ़िल्म बना सकता हूँ तथा वह उसके अन्दर यदि बनाता है, तो साहित्य और सिनेमा के लिए इससे सुखद बात और क्या हो सकती है। इसमें सबसे पहले रूपांतर करना पड़ेगा। cinematic language ढूंढनी पड़ेगी। लेकिन इस पर फिर मेरा वही जवाब है कि बहुत कम होता है ऐसा।

इस पूरी प्रक्रिया की समस्याएं क्या हो सकती हैं?

सागर सरहदी- इस माध्यम की सबसे बुरी बात यह है कि फिल्मकार साहित्य से बहुत ज्यादा एक्सेपोज न हों। इसके बाद इस प्रक्रिया में सबसे पहले प्लाट आयेगा... तो हमको पता है कि आगे जाकर प्लाट डेवलप करने में साहित्य रोकता है सिनेमा को। सिनेमा का जो बहाव है अपना, उसमें रूकावट डालता है साहित्य। दूसरे यह है कि साहित्य का जो translation है , वह ठीक तरीके से हो नहीं पाता है। इसमें हिरो-हीरोइन मिलते हैं, उसका बाप देखता है, तो इसको हम सिनेमा नहीं मानते। इसके बावजूद यदि कोर्इ बड़ा डायरेक्टर अच्छे नाटक पर या नावेल पर सिनेमार्इ रूपांतरण को महसूस करता है, कि वो इस पर फिल्म बना सकता है, तो यह बहुत अच्छी बात है। दुनिया में मैं समझता हूँ कि एक ही ऐसे स्वीडिश डायरेक्टर बर्गमैन थे, जो नाटक भी करते थे, सिनेमा भी बनाते थे, तो उनकी फिल्मों में नाटक के रूप में जो सिनेमा पर्दे पर आता था, वो बहुत अच्छा माना गया। उनके अन्दर सिनेमा और नाटक का रचाव-बसाव इतनी गहरार्इ से जुड़ा हुआ था कि उनकी जो क्वालिटिज थीं, वह सिनेमा में आती गयीं।

सिनेमा के शुरूआती दौर में साहित्य से इसका गहरा लगाव था, जबकि समकालीन सन्दर्भो में ऐसा नहीं है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

सागर सरहदी- सर्वप्रथम इसमें जो तब्दीलियाँ आयी हैं, उसका कारण है व्यावसायिक मानसिकता। इस पूरे रचनाकर्म को व्यवसाय का रूप दे दिया गया है। हम यह बात तो मानते हैं कि इस पर पैसा खर्च किया गया होता है, तो वह पैसा वापस भी आना चाहिए। यह तो एक रियलिटी है। जहाँ तक मैं समझता हूँ कि जब भी किसी ने अच्छी फिल्म बनायी है, तो वह चलती भी है। उसमें पैसा वापस आता है। लेकिन अगर उसको आप बिजनेस की तरह ट्रीट करेंगे तो यह गलत है। अगर इसको मानें कि हमने इसमें इतना करोड़ खर्च किया और हमारा table प्राफिट इतना होना चाहिए, यह जो दृषिटकोण सिनेमा के अन्दर विकसित हुआ है, यह जो तब्दीली है, यह एक जेनरेशन है सिनेमा की। तो उसमें सेनिसबिल्टी कहाँ से आयेगी? जैसे मैं एक बात कहते-कहते रह गया कि सुबोध मुखर्जी जब तेरह गाने इकटठा कर लेते थे और कहानी बाद में जोड़ते थे तो वे कहानी को अहमियत ही नहीं देते थे। बलिक वो क्या करते थे कि किसी कहानीकार को बुलाकर के टेबल पर जुता रख देते थे, उसके मुँह के सामने और आँखे बन्द कर लेते थे। किसी रायटर ने उनसे कहा कि आप तो सो रहे हैं। उनके जवाब में सुबोध मुखर्जी ने कहा कि आप की कहानी में इतनी शक्ति  हो, जो मुझे झकझोर दे। अब ये जो बाते हैं, वाहियात किस्म की बातें  हैं। वर्तमान समय में जो फिल्में बन रहीं हैं, जैसे 'टशन जैसी फिल्में हैं, या 'चाँदनी चौक टू चायना जैसी फिल्में हैं...मतलब ये क्या है? ये जो फिल्में आयी हैं, यह entertainment के  नाम पर या व्यवसाय के नाम पर दर्शकों को लूट रही हैं। सिनेमा पर बाजार बहुत हावी है। बाजार अपनी कंडीशन रखता है। सारी गड़बड़ इसमें है।

जी बहत-बहुत धन्यवाद।


समानांतर सिनेमा आंदोलन : एक नयी परंपरा की खोज

मानवेन्द्र सिंह


सिनेमा हमारे समाज और उसके पीछे छिपे हुए नग्न यथार्थ को समझने का 21वीं सदी का सबसे लोकप्रिय माध्यम है। यहाँ यह फ़र्क करना जरुरी हो जाता है कि सिनेमा यथार्थ को किस स्तर तक प्रस्तुत करने में सफल हो पाता है? हमारे यहाँ सिनेमा हमेशा से दो भिन्न प्रवृत्तियों के साथ विकसित होता रहा है- मुख्यधारा सिनेमा और नया सिनेमा (जिसे सार्थक सिनेमा या गैर व्यावसायिक सिनेमा भी कहा जा सकता है)। मुख्यधारा सिनेमा आर्थिक महत्व के बरक्स दर्शक को सिर्फ अपने हितों को साधने का माध्यम बनाता है। एक तरीके से कहा जाये तो वह दर्शक को हिप्नोटाइज करता है, जबकि सार्थक सिनेमा दर्शक को अपने भीतर उतरने देता है। जिन्हें सत्यजीत राय कृत ‘गणशत्रु’ का अंतिम दृश्य याद हो, वे बखूबी इस बात को समझ सकते हैं कि कैसे कोई फ़िल्म हमारी रोज़मर्रा की विसंगतियों को वैचारिक धरातल प्रदान करती है। फ़िल्म का अंतिम दृश्य है, जिसमें कैमरा हमें डॉक्टर की मेज पर स्टैथोस्कोप के साथ मंदिर के चरणामृत की शीशी दिखाता है, उसमें तुलसी का पत्ता पड़ा है। दोनों चीजें राय ने दर्शक के सामने रख दी हैं कि विज्ञान और अंधविश्वास में से आपको एक चुनना है। यहाँ आप निर्णायक हैं। फैसला आपको करना है।

                    इस छोटे से उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि समर्थ फ़िल्मकार वही है जो, दर्शक के समक्ष प्रश्न करने वाले, परेशान करने वाले, जद्दोज़हद करने वाले सिनेमा को परदे पर साकार करता है और दर्शक को एक वैचारिक धरातल पर लाकर खड़ा कर देता है। सिनेमा के ऐतिहासिक दौर को देखा जाये, तो स्पष्ट रूप से पता चलता है कि इस प्रकार का ‘वैचारिक सिनेमा’ अथवा ‘सार्थक सिनेमा’ न केवल हिंदी में अपितु अनेक भारतीय भाषाओं में बन रहा था। इसलिए इसे हिंदी सिनेमा न कहकर हिन्दुस्तानी सिनेमा कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा। भारत में इस तरह के ‘नए सिनेमा’ की शुरुआत के सूत्र इटली के नवयथार्थवाद के अंत और फ्रेंच न्यू वेब के प्रारंभ से कमोबेश जुड़े हुए हैं। साहित्य और सिनेमा के इतिहास में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलता है। 1940 और 1950 के दशक में इटली के बड़े फ़िल्मकारों में विक्टोरियो डे सिका, फेलिनी, अंतोनियो, पासोलिनी और रोसेलिनी प्रमुख थे। ये फ़िल्मकार फ़िल्म की विषयवस्तु को नवयथार्थवादी ढंग से प्रस्तुत करने के हिमायती थे। इनमें रोसेलिनी से नवयथार्थवादी सिनेमा की शुरुआत मानी जाती है। रोसेलिनी की फ़िल्म ‘ओपन सिटी’ (1945) में पहली बार पेशेवर कलाकारों की छोड़कर गैर व्यावसायिक कलाकारों को मौका मिला। डे सिका की ‘बाइसिकल थीव्ज’ (1948) ने मानवीय सच्चाई और विडम्बना को पर्त-दर-पर्त मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ मौलिक रूप से प्रस्तुत किया।

                   दूसरे विश्वयुद्ध और फासीवाद के बाद इटली में रिनेसां की शुरुआत होती है, जिसे विश्व सिनेमा के सन्दर्भ में ‘न्यू वेब’ आन्दोलन कहा जाता है। इस आन्दोलन के अग्रदूत आंद्रे बाजां ने सिनेमा को वैचारिक स्तर पर देखने, सुनने और समझने की ओर फ़िल्म सिद्धांतकारों का ध्यान आकर्षित किया। बाजां ने 1943 में सिनेमा पर स्वतन्त्र रूप से लिखना आरंभ किया। वे फ्रेंच मैगज़ीन ‘Cahiers du Cinema’ (संपादक- स्टीफन डेलोर्मे) के सह-संस्थापक (1951) थे। उनके साथ डोनियल वाल्क्रोज़ और जोसेफ़ मैरी लो ड्युका भी पत्रिका से जुड़े हुए थे। मैगज़ीन के कुल चार अंक (1958-1962) निकले। बाजां ने अपने लेखों में सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र के लिए ‘वस्तुगत यथार्थ’ (इटालियन नवयथार्थवाद), डीप फोकस तकनीक (आर्सन वेल्स), वाइड शॉट्स टेक्निक (जीन रेनिओर), शॉट इन डेफ्थ इत्यादि तकनीक के प्रयोग पर जोर दिया। उन्होंने सिनेमा में यथार्थ की निरंतरता के लिए ‘मिज़े इन सीन’ (यह एक विजुअल थीम है, जिसमें निर्देशक- कैमरा, लाइट्स, सेट्स, ध्वनि, कास्ट्यूम और कलाकार के अभिनय इत्यादि का संपादन के साथ-साथ ऐसा समायोजन करता है, जिससे दृश्य बिना किसी नाटकीयता के यथार्थपूर्ण और कलात्मक लगे। इसमें टाइम और स्पेस का महत्व होता है, साथ ही यह कलाकार के स्टेट ऑफ माइंड पर भी निर्भर करता है) के प्रयोग पर भी जोर दिया। बाजां ने फ़िल्म संपादन की तकनीक मोंताज (इसमें छोटे-छोटे शॉट्स की एक सिक्वेंस होती है, जिसे संपादन के माध्यम से इस प्रकार समायोजित किया जाता है, जिससे पर्दे पर दृश्य बिना किसी नाटकीयता के एकदम तनावपूर्ण लगे और दर्शक पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाये। इसमें स्पेस, टाइम और इन्फार्मेशन का विशेष ध्यान रखना होता है) के प्रभाव को भी व्याख्यायित किया। बाजां के साथ जुड़े फिल्मकारों ने फ़िल्म निर्माण से पहले उसके सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन किया और उसके रूप-विधान को समझा। इस प्रकार साठ के दशक में बाजां के साथ बौद्धिक सिनेमाई परिपक्वता वाले फिल्मकारों का एक समूह सामने आया, जिन्होंने 1959 से पूरी लम्बाई की फिल्मों का निर्माण शुरू किया। इसमें फ्रैंकोइस त्रुफो, क्लॉड शैबरोल, एरिक रोह्मर, जॉक रिवेट तथा ज्यां लुक गोदार प्रमुख हैं। विश्व सिनेमा के इतिहास में 1959 का समय अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी साल फ्रैंकोइस त्रुफो की ‘The 400 Blows’ का कॉन फ़िल्म महोत्सव में फ़्रांस की प्रतिनिधि फ़िल्म के रूप में चयन किया गया। बाजां समूह के लिए यह एक महत्वपूर्ण घटना थी।

                   आंद्रे बाजां ने यथार्थवाद को फ़िल्म आलोचना का आधार माना। बाजां सैद्धांतिक स्तर पर स्वीकार करते हैं कि फ़िल्म उन बिम्बों को सेल्यूलाइड पर रचने में समर्थ होती है, जो संसार की सम्पूर्णता तथा सम्पन्नता के लिए स्थानिक महत्व रखते हैं। इस प्रकार युद्धोतर यूरोप की फ़िल्म संस्कृति तथा फ्रेंच ‘न्यू वेब’ पर बाजां के प्रभाव को आसानी से देखा जा सकता है। छठवें दशक के मध्य में नवयथार्थवादी आन्दोलन लगभग समाप्त हो जाता है और ‘न्यू वेब’ आन्दोलन पूरे  विश्व में कमोबेश एक साथ शुरू होता है। जर्मनी में यह ‘युवा सिनेमा’, फ़्रांस में ‘न्यू वेब’ (नई लहर), अमेरिका और इंग्लॅण्ड में यह ‘भूमिगत सिनेमा’ आदि संज्ञाओं से अभिहित किया गया। फ्रेंच की सिने-पत्रिका ‘Cahiers du Cinema’ ने इस आन्दोलन को आरम्भ करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। सिने-इतिहास में यह पहला अवसर था, जब समान दृष्टि वाले सिनेमादां एक नए ढंग के सिनेमा के निर्माण के लिए एक साथ खड़े हुए।

                   न्यू वेब का सैद्धांतिक आधार था- विद्रोह, पूर्ववर्ती सिनेमा के प्रति विद्रोह, उसकी तमाम स्थापनाओं और व्यवस्था के प्रति विद्रोह। इन नए फिल्मकारों का मुख्य विद्रोह पारंपरिक सिनेमा की निर्माण प्रक्रिया से था। ये फिल्मकार सिनेमा में रूप और वस्तु (Farm and Content) के प्रति सचेत थे, ताकि सिनेमा में वे बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात कह सकें  ‘न्यू वेब’ से जुड़े इन कलाकारों ने नामी और महंगे सितारे, निर्देशक, कैमरामैन, लंबे-चौड़े स्टूडियोज, भव्य साज-सज्जा, लाखों का बजट तथा सैकड़ों तकनीशियन-कर्मचारियों आदि का फिल्म निर्माण प्रक्रिया से बहिष्कार किया। इन्होंने छोटे बजट की फिल्में बनाई तथा स्टूडियो के दायरे से बाहर निकलकर आम कलाकारों के साथ उन्होंने वास्तविक स्थानों पर फिल्मों की शुटिंग की। शायद इसी कारण ‘न्यू वेब’ को व्यक्ति का सिनेमा कहा जाता है क्योंकि इन फिल्मों में निर्देशक का अपना नजरिया निहित है। भले ही ‘न्यू वेब’ रूप और वस्तु की दृष्टि से जैसा भी रहा हो, परंतु उसमें फिल्मकार का हस्ताक्षर बड़ी ही साफगोई से देखा जा सकता है।

                   फ्रेंच ‘न्यू वेब’ की तरह ही भारतीय सिनेमा में भी ‘नया सिनेमा’ की लहर एक कलात्मक भावबोध लेकर उपस्थित हुआ। 1950 के दशक में इटली के नवयथार्थवाद से प्रेरित सत्यजित राय- ‘पथेर पांचाली’ (1952), ऋत्विक घटक- ‘नागरिक’ (1952) और मृणाल सेन- ‘रातिभोर’ (1955) ने मानवीय मूल्यों को केंद्र में रखकर मौलिक और यथार्थवादी फिल्मों का निर्माण किया। नवयथार्थवाद फ़िल्म को जीवन के पास लाने का आंदोलन था, जिसने विषय और तकनीक दोनों में बदवाल किया। पचास के दशक में ही साहित्य में भी, खासतैर पर हिंदी में 'नई कहानी' और 'नई कविता' आंदोलन की शुरूआत हुई। भारतीय सिनेमा में ‘न्यू वेब’ को ‘नया सिनेमा’, ‘समानांतर सिनेमा’, ‘कला सिनेमा’, ‘सार्थक सिनेमा’ और ‘गैर व्यावसायिक सिनेमा’ इत्यादि नामों से जाना जाता रहा है। भारत में पचास और साठ का दशक साहित्य और सिनेमा में हो रहे परिवर्तनों को एक नए सिरे से जांचने-परखने की मांग करता है और निश्चित तौर पर इसे विश्लेषित किया भी जाना चाहिए।   
        
                   मई 1964 को जवाहर लाल नेहरु के अवसान के बाद भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में कई अनपेक्षित मोड़ आये। लाल बहादुर शास्त्री भारत के नए प्रधानमंत्री बने। इंदिरा गाँधी उनके मंत्रिमण्डल में सूचना और प्रसारणमंत्री (1964-1966) बनीं। लाल बहादुर शास्त्री देश को गाँधीवादी आदर्शों पर ले जाने का सपना देख रहे थे, उससे पहले ही दिसंबर 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध शुरू हो गया और जनवरी 1966 में शास्त्री जी का ताशकंद में निधन हो गया। तत्पश्चात इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बनीं। 1966, 1967 और 1968 में पूरे देश में भयंकर सूखा और अकाल पड़ा। 1967 में ही बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हुआ। यह आंदोलन पढ़े-लिखे युवाओं में खासतौर से कलकत्ता के आस-पास फैला। वास्तव में नेहरु युग के बाद की राजनीति को मोहभंग की राजनीति के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। सत्ता-प्रतिष्ठान लूट-खसोट और भ्रष्टाचार के पर्याय के रूप प्रचलित हो गए थे।

                   1965 के बाद भारत की राजनीति में प्रतिरोध का स्वर प्रबल हुआ। केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, किन्तु अनेक राज्यों में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारों की स्थापना हुई, जो कि विरोधी दलों के सम्मिलन का परिणाम था। सत्ताधारी दल कांग्रेस का विघटन होने लगा। इस सबकी परिणति 1974 में पूरे देश में आपातकाल की घोषणा के रूप में हुई। इस अवधि में घटित परिस्थितियों को जनमानस ने गहराई से महसूस किया। दमन, शोषण, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता और हिंसा के अलग-अलग रूप सामने आये। नया सिनेमा में भी भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर स्पष्ट है। कहना न होगा कि यह वह समय था, जब भारतीय समाज में अनेक तरह के सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक विमर्श की एक मुकम्मल जमीन तैयार हो रही थी। इसी कालखंड में उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में सवर्ण व पिछड़ी जातियों के संघर्षों की धार पैनी हुई। गांवों में सामंती व्यवस्था का शोषण अपने चरम पर था। सरकार ने न्यूनतम मजदूरी कानून लागू किया, सामंतों ने इसका हल अपने तरीके से ढूंढ लिया था। गांव में भूमिहीन मजदूर महानगरों में आकर विस्थापन (पार-गौतम घोष) के दंश सहने के लिए मजबूर थे। भारतीय नया सिनेमा को समझने के लिए इन परंपरागत पहलुओं को समझना जरुरी था, जिसने नया सिनेमा के फिल्मकारों के लिए व्यापक जमीन मुहैया कराई।

                    सिनेमा से जुड़े संस्थानों-एजेंसियों का जिक्र भी थोड़ा संक्षेप में ही सही लाज़मी हो जाता है कि किस प्रकार इस आंदोलन के सूत्रपात में इनका योगदान महत्वपूर्ण था। स्वतंत्र भारत के पहले दशक में सिनेमा से संबंधित गतिविधियों में इज़ाफा हुआ। 1940 में भारतीय एवं ब्रिटिश फिल्मकारों के लिए ‘फ़िल्म ऐडवाइजरी बोर्ड’ का गठन हो चुका था, जिसका नया नाम 1943 में ‘इन्फोर्मेशन फिल्म्स ऑफ इंडिया’ कर दिया गया। इसका एक खास प्रयोजन था- दूसरे विश्वयुद्ध के प्रभाव से संबद्ध लघु फिल्मों एवं प्रॉपगैंडा फिल्मों का निर्माण। 1948-1949 में ‘फिल्म्स डिवीजन’ का गठन हुआ। साथ ही भारत सरकार ने सिनेमा के क्षेत्र में विश्व पटल पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने हेतु 1952 में पहले ‘अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह’ का आयोजन किया। 1960 सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन ‘फ़िल्म वित्त निगम’ (Film Finance Corporation) की स्थापना हुई। सरकार ने FFC के लिए 50 लाख रूपये की मुलभूत पूंजी तथा एक करोड़ रूपये की सरकारी गारंटी की व्यवस्था की। इसका उद्देश्य नए फिल्मकारों को सार्थक सिनेमा बनाने के लिए ऋण मुहैया कराना था। ‘फ़िल्म फेयर’ जैसी पत्रिकाओं ने व्यावसायिक निर्माताओं के समर्थन में FFC के इस सराहनीय कदम की आलोचना की। 1960 में ही ‘फ़िल्म और टेलीविजन संस्थान’ की दिल्ली में स्थापना (जिसे 1974 में दिल्ली से पूना शिफ्ट कर दिया गया) हुई।

                   फ़िल्म इंस्टीट्यूट से निर्देशन और तकनीक में प्रशिक्षण प्राप्त फिल्मकारों ने फिल्मों में प्लाट के तौर पर आधुनिक भारतीय साहित्य की रचनाओं को आधार बनाया। नया सिनेमा के इन फिल्मकारों को ‘न्यू वेब’ की सिने-भाषा, शैली-शिल्प और अनुप्रयोगों की गंभीर जानकारी थी। इनकी फिल्मों में साहित्य के सिनेमाई-रूपांतरण का उद्देश्य रचना (Text) के कथ्य को एक माध्यम से दूसरे माध्यम में रूपांतरित करना था। साहित्य में पहले जो कहानी शब्दों के माध्यम से कही जाती थी, उन्हीं शब्दों को सिनेमाई तकनीक के माध्यम से दृश्य-बिम्बों में पर्दे पर उकेरा गया। नये सिनेमा के सन्दर्भ में एक बात हमेशा मन में सवाल खड़े करती है कि इसका चरित्र शुरू से ही प्रतिरोध का रहा है, चाहे वह सरकारी-तंत्र हो, न्याय-प्रणाली हो, मीडिया हो या सामंतशाही-व्यवस्था हो, नया सिनेमा व्यंगात्मक उपादानों के सहारे सबकी आलोचना का पक्षधर रहा है। फिर यह आंदोलन सरकार के पैसे से ही क्योंकर शुरू हुआ? ‘The New Indian Cinema’ में अरुणा वासुदेव ने भी स्वीकार किया है कि भारत में समानांतर सिनेमा की शुरुआत लोकप्रिय सिनेमा के विरुद्ध फ़िल्म निर्माताओं के प्रोत्साहन से पैदा न होकर सरकारी निर्णय से उत्पन्न हुआ। आखिर ऐसा क्यों हुआ, यह शोध का विषय हो सकता है।

             समानांतर सिनेमा और साहित्य के अंतर्संबंधों के दृष्टिकोण से सन् 1969 को प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है। 1969 में आई तीन फिल्मों- मृणाल सेन की ‘भुवनशोम’ (बनफूल के उपन्यास पर आधारित), बासु चटर्जी की ‘सारा आकाश’ (राजेंद्र यादव के उपन्यास पर आधारित) और मणिकौल की ‘उसकी रोटी’ (मोहन राकेश की कहानी पर आधारित) से समानांतर सिनेमा की शुरूआत मानी जाती है। इन फिल्मों के आधार पर समानांतर सिनेमा को तीन धाराओंराजनैतिक समानांतर सिनेमा (भुवनशोम), मध्यवर्ग का सिनेमा (सारा आकाश) और प्रयोगवादी सिनेमा (उसकी रोटी) में विभाजित किया जा सकता है। यह एक महत्त्वपूर्ण संयोग है कि फ्रैंच ‘न्यू वेब’ की तरह भारतीय ‘समानांतर सिनेमा’ का स्वर विद्रोही नहीं है और न ही उसने व्यावसायिक फिल्मों के विरूद्ध कोई सख्त रवैया अपनाया। अपितु समानांतर सिनेमा ने व्यावसायिक सिनेमा के बरक्स मध्यवर्ग का एक नए तरह का सिनेमा विकसित किया, जिसका प्रभाव लोकप्रिय सिनेमा के संदर्भ में आसानी से देखा जा सकता है।

             मृणाल सेन ने 1968 में ‘भुवनशोम’ के निर्माण के लिए ‘फ़िल्म वित्त निगम’ के पास ऋण के लिए आवेदन किया और उन्हें स्वीकृति मिल गयी। ‘भुवनशोम’ 1969 में पर्दे पर आई, जो कि उनकी पहली फिल्मों से अलहदा थी, एकदम नए कलेवर के साथ। आधुनिक भारतीय सिनेमा के लिए यह फ़िल्म एक क्रांतिकारी प्रस्थान बिंदु थी। इसके पहले मृणाल सेन बांग्ला में सात फ़िल्में ‘रातभोर’ (1955), ‘नील आकाशेर नीचे’ (1958), ‘बाइसे श्रवण’ (1960), ‘पुनश्च’ (1961), ‘अवशेषे’ (1963), ‘प्रतिनिधि’ (1964), ‘आकाश कुसुम’ (1965) और उड़िया में ‘माटिर मनीष’ (1966) बना चुके थे। ‘भुवनशोम’ के फिल्मांकन से पूर्व मृणाल सेन विद्द्यार्थी जीवन में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ और ‘इंडियन पीपुल्स थियेटर एशोसिएशन’ (IPTA) से जुड़े रहे। फ़िल्म में उनकी अभिरुचि रुडोल्फ आर्नहाइम की पुस्तक ‘Film Aesthetics’ और आइजेन्सटाइन के शागिर्द ब्लादिमिर निल्सन की ‘The Cinema as a Graphic Art’ के अध्ययन से हुई। 1945 में सिनेमा पर उनका पहला लेख ‘Cinema and the People सोवियत जर्नल में प्रकाशित हुआ, जिसके संपादक हीरेन मुखर्जी थे। फ़िल्में बनाने से पहले सेन बतौर ऑडियो टेक्नीशियन ‘कलकत्ता फ़िल्म स्टूडियो’ में काम कर चुके थे।

               ‘भुवनशोम’ मृणाल सेन की पहली ऐसी फ़िल्म थी, जिसका फिल्मांकन उन्होंने हिंदी में किया। इसकी पटकथा मृणाल सेन ने, संवाद- बद्रीनाथ और सत्येन्द्र शर्मा ने लिखा। संगीत विजय राघव राव, कैमरा संचालन के.के. महाजन और संपादन राजू नायक ने किया। फ़िल्म की लोकेशन गुजरात की है और इसकी लम्बाई 96 मिनट है। ‘भुवनशोम’ 50 साल के एक ऐसे विधुर आदमी की कहानी है, जो रेलवे में अफ़सर है। सैद्धांतिक स्तर पर अपने मातहतों में उसकी छवि सख्त नियम-कायदे वाले अनुशासन प्रिय व तुनक मिजाज़ अफ़सर की है। फ़िल्म की शुरुआत संगीत की ध्वनि से होती है-

Scene no. 1/Ext./ Mid shot/रेल की पटरियाँ/ रेल की तेज गति व ध्वनि
Scene no. 2/ Int./ Mid shot/रेलवे का एक छोटा सा प्लेटफार्म
प्लेटफार्म पर टी.टी. जाधव पटेल (साधू मेहर) दाढ़ी बनवा रहा है। तभी उसका दूसरा साथी आता है... (Mid shot)
दूसरा साथी- अरे जाधव भाई...! क्या सचमुच बड़े साहब आ रहे हैं?...
जाधव पटेल- आ रहे हैं मतलब?.... अरे आये ही समझो, ट्रेन आने में कितनी देर है, देखो आते ही क्या हंगामा करता है?... अच्छा सुनो...! तुम्हारा कोई गोलमाल या लफड़ा तो नहीं?...
दूसरा साथी- इसका मतलब?.... (गुस्से में)
जाधव पटेल- मतलब यही कि तुम तो अच्छी तरह जानते हो... साला शोम साहब एक नंबर... खैर छोड़ो... आओ चाय पीएं...
Scene no. 3/Ext./ Mid shot/रेल की पटरियाँ/ रेल की तेज गति व ध्वनि
Scene no. 4/Ext./ Mid shot/चाय की दुकान/ रेल की तेज गति व ध्वनि
(जाधव और उसका साथी चाय पी रहे हैं)
जाधव पटेल- अच्छा तुम्ही बताओ...! आखिर मैंने क्या किया और जो कुछ थोड़ा बहुत किया, वो तो सिर्फ अकेले के लिए नहीं... और क्या कोई नहीं करता?... तो सिर्फ सारा दोष मेरा क्यूँ? रिपोर्ट सिर्फ मेरे ही नाम पर क्यूँ?...
दूसरा साथी- देखो वो यहाँ आ रहे हैं, हाथ पैर जोड़ दो, शायद वो माफ़ कर दें...
जाधव पटेल- दिमाग खराब है? शोम साहब और माफ़ कर दें... कोई फायदा नहीं उनके सामने गिड़गिड़ाने का... लेकिन मैं सोचता हूँ... दो महीने के बाद मेरा गौना है... अगर रिपोर्ट-विपोर्ट हो गयी तो?...
Close shot/जाधव पटेल
Scene no. 5/Ext./ Mid shot/रेल की पटरियाँ/ रेल की तेज गति व ध्वनि
(प्लेटफॉर्म पर ट्रेन रूकती है)
Scene no. 6/Int./ Mid shot/जाधव पटेल दूर से शोम साहब की बातचीत सुनता है

शोम साहब- तुम्हें बार-बार कह चुका हूँ, ये जी-हुजूरी मुझे बिल्कुल पसंद नहीं, चापलूसी से आप लोग मुझे खुश नहीं कर पाएंगे, मैं पुराने ढंग का आदमी हूँ... Duty First Self Last’  यही मेरा मोटो है... अच्छी तरह ड्यूटी कीजिये मैं खुश रहूँगा और अगर काम से जी चुराया या कोई गड़ड़ की तो समझ लीजिए कि आप लोगों की खैर नहीं... झुक-झुक कर वो सलामियाँ दागने से कोई फायदा न होगा... यहाँ वो टिकेट कलक्टर था जाधव पटेल...
दूसरा कर्मचारी- ए जाधव भाई... (आवाज लगाता है)  
Scene no. 7/Int./ Mid shot/शोम साहब चुस्त-दुरुस्त सूट और टाई में/ मुँह में सिगार
Close shot/धुएँ का उठना
शोम साहब- (अंतर्मन से आवाज आती है) कैसा भीगी बिल्ली की तरह झुका हुआ है... पैसे बनाने के तरीके खूब जानता है... घूस लेने में उस्ताद... घबराओ मत बच्चू... तुम्हारी रिपोर्ट तैयार हो गयी है...
Scene no. 8/Int./ Mid shot/शोम साहब तांगे पर बैठते हैं और तांगा चल देता है
जाधव पटेल- (अंतर्मन से आवाज आती है) किस तरह घूर-घूर कर देख रहा है...!

               फ़िल्म में ये सारे दृश्य एक केस स्टडी के तौर पर देखे जा सकते हैं कि किस तरह सरकारी विभाग का एक कर्मचारी भ्रष्टाचार को एक छोटी-मोटी गलती मानता है और उसे अपने किये पर कोई पछतावा नहीं है। फ़िल्म के प्रारंभिक दृश्यों से उसकी आंतरिक बुनावट को बखूबी समझा सकता है। ‘भुवनशोम’ में आज़ादी के तुरंत बाद चालीस के दशक का सेट है। फ़िल्म में शोम साहब के माध्यम से फ़िल्मकार ने कलकत्ता के मध्यवर्गीय भद्रलोक द्वारा अंग्रेजों से उधार ली गयी विक्टोरियन आदतों का तीखे व्यंग से मखौल उड़ाया है। मृणाल सेन सिनेमा में टेक्स्ट, टाइम और सिनेमैटिक फॉर्म के संयोजन को महत्व देते हैं। उनके लिए यह विधा एक टेक्नोलाजिकल परफॉरमेंस है। ‘भुवनशोम’ थीम से कहीं अधिक अपने तकनीकी पक्ष के लिए महत्वपूर्ण है। एक महान फ़िल्म के लिए जो भी घटक जरूरी होते हैं, मसलन अभिनय, छायांकन, संपादन, और बैक ग्राउंड स्कोर इत्यादि, उन सारे मानदंडों पर ‘भुवनशोम’ मील का पत्थर साबित हुई। सत्यजित राय ने ‘भुवनशोम’ के बारे में महज सात शब्दों- big, bad bureaucrat, rimford by rustic Bailey में टिप्पणी की है।

               ‘उसकी रोटी’ एक फ़िल्मकार द्वारा स्त्री मन के अंतर्गुम्फन की सेल्युलाइड पर रची गयी मौन अभिव्यंजना है। मणिकौल नया सिनेमा के उन महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी पहली फ़िल्म से ही सिनेमाई-अनुप्रयोगों के नयेपन की पहचान करायी। ‘उसकी रोटी’ की पटकथा मणिकौल, संवाद मोहन राकेश, छायांकन के.के. महाजन, संगीत रतन लाल (संतूर) ने दिया। फ़िल्म की लम्बाई 110 मिनट और लोकेशन पंजाब के एक गांव (नकोदर) का है। फ़िल्म की थीम बस ड्राइवर सुच्चा सिंह (गुरदीप सिंह) और उसकी पत्नी बालो (गरिमा) की रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर आधारित है। बालो प्रतिदिन रोटियां लेकर खेतों के रास्ते लंबी दूरी तय करके नकोदर गांव के बस स्टैंड पर अपने पति का अंतहीन इंतज़ार करती रहती है। उसका पति शहर में अपनी स्वतन्त्र ज़िंदगी जीते हुए कार्ड्स खेलता है और बाकि समय अपनी रखैल के साथ गुजारता है। सप्ताह में केवल एक दिन वह अपने घर आता है। सुच्चा सिंह के लिए बालो महज एक पत्नी है, जिसके लिए रोजमर्रा की जरूरतें पूरी हो जाना भर काफी है। इसी क्रम में एक दिन बालो रोटी ले आने में विलम्ब कर देती है और सुच्चा सिंह नाराज होकर चला जाता है। बालो उसके आने का इंतज़ार करती है, सांझ होती है और अंततः रात हो जाती है।

               मणिकौल ने 1966 में फ़िल्म स्कूल से निर्देशन में स्नातक किया। वे सिनेमा के लिए तकनीक, फॉर्म और नैरेटिव को महत्वपूर्ण मानते हैं। ‘उसकी रोटी’ में उन्होंने गैर व्यावसायिक कलाकारों को चुना। फ़िल्म में संवादों की जगह देह-भाषा, चेहरे के हाव-भाव और स्थानीयता ने ही संवाद की भाषा अख्तियार कर लिया है। फ़िल्म में जहाँ संवाद हैं भी वहां बिना किसी नाटकीयता के सहज-लो टोन में गांव के अक्खड़पन व ठेठ देहाती लहजे के साथ आया है। के.के. महाजन का कैमरा महिला किरदारों के धूसर चेहरे, हाथ के एक्सप्रेशन, मिट्टी की दीवारें, अमरूद के बाग, सड़क पर उड़ाती हुई बस, खेतों के लंबे शाट्स इत्यादि का छायांकन, पर्दे पर ऐसा सिनेरियो रचते हैं, जिसमें गंभीर नीरवता है। फ़िल्म के ये दृश्य किसी महान चित्रकार की क्लासिक कृति से प्रतीत होते हैं। ‘उसकी रोटी’ में पंजाब का वह गांव हमारे सामने एक किरदार के शक्ल में ही हमारे सामने आता है, जहाँ एकरसता के सिवाय कुछ भी नहीं है और यही बालो की ज़िंदगी का भी सच है। उसमें ज़िंदगी जीने की उद्दाम लालसा के बजाय एकरस व सपाट अंतहीन इंतज़ार के आलावा कुछ भी शेष नहीं लगता है, मानो यही उसकी नियति है।

                सिनेमा से जुड़े तमाम सिद्धांतकार मानते हैं कि मणिकौल पर ब्रेसां, रेने और अंद्रेई तार्कोवस्की का प्रभाव था, कमोबेश यह सच भी है, परन्तु वास्तव में मणिकौल ने फिल्मांकन की अपनी शैली विकसित की है। उनकी फिल्मों के दृश्यों में परस्पर संबद्धता नहीं होती है, बल्कि वे फ्रैगमेंटेड होते हैं। उनमें संवादों का अभाव और अनियमितता होती है। फ़िल्म के छोटे-छोटे शाट्स को जोड़कर कहानी कहने की कोशिश की गयी होती है। ब्रेसां और अंद्रेई तार्कोवस्की के यहाँ भी इसी तरह संवादों और सूचनाओं की डिटेलिंग के अभाव में कहानी कहने की जद्दोज़हद पाई जाती है। मणिकौल ने अपनी फिल्मों में आंद्रे बाजां के सैद्धांतिक पहलुओं पर ध्यान देते हुए, ‘मिज़े इन सीन’ तकनीक अपनाकर थीम को आगे बढ़ाने की कोशिश की है। इसी कारण उनकी फिल्म के दृश्यों में फ्रैगमैंटेशन तकनीक की बहुलता दिखाई देती है। मणिकौल अपने सिनेमाई-अनुप्रयोगों को चिंतन की एक प्रक्रिया मानते हुए स्वीकार करते हैं कि- “फ़िल्म बनाने का भी चिंतन करना चाहिए। इसके बारे में चिंतन चलना चाहिए। फ़िल्म देखने के तरीके को अगर बदलना चाहते हैं तो कुछ और करने की जरुरत है बजाय इसके कि एप्रीसीएशन इतना उबाऊ कर दो।” मणिकौल का यह स्वीकार्य व्यावसायिक सिनेमा पर एक गंभीर टिप्पणी है। मणिकौल की फिल्मों के आवांगर्द अनुप्रयोगों पर बहुत से सिने-सिद्धांतकारों को आपत्ति रही है, परन्तु इससे उनका महत्व कम नहीं हो जाता अपितु यह उनके और दर्शकों के सौंदर्य-बोध पर  प्रश्न खड़े करता है।

                ‘सारा आकाश’ एक निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार की रोज़मर्रा की विसंगतियों का पर्दे पर रचा गया एक जीवंत आख्यान है। फ़िल्म की पटकथा बासु चटर्जी, छायांकन के.के. महाजन और संगीत सलिल चौधरी का है। फ़िल्म की लम्बाई 100 मिनट और लोकेशन राजेंद्र यादव का आगरा का पुश्तैनी मकान है। बासु चटर्जी 18 साल की उम्र में ही बम्बई आ गए थे और अगले 19 सालों तक ‘ब्लिट्ज’ (साप्ताहिक) में बतौर कार्टूनिस्ट नौकरी करते रहे थे। ‘सारा आकाश’ के निर्देशन से पूर्व ‘सरस्वतीचंद्र’ (1966) में गोविन्द सरैया और ‘तीसरी कसम’ (1968) में बासु भट्टाचार्य के सहायक निर्देशक के रूप में काम कर चुके थे। बतौर निर्देशक बासु चटर्जी और बतौर सिनेमैटोग्राफर के.के. महाजन की ‘सारा आकाश’ पहली फ़िल्म है। महाजन को इस वर्ष (1969) की दो फिल्मों ‘सारा आकाश’ और ‘उसकी रोटी’ के लिए सर्वोत्तम चलचित्र कला (सिनेमैटोग्राफी) का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था। ‘भुवनशोम’, ‘सारा आकाश’ और ‘उसकी रोटी’ का छायांकन महाजन ने ही किया था। महाजन फ़िल्म संस्थान से ‘मोशन पिक्चर फोटोग्राफी’ में स्नातक (1966) थे। उन्हें स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था। बम्बई से  उन्होंने स्वतन्त्र सिनेमैटोग्राफर के रूप में शुरुआत की। आरंभ में उन्होंने विज्ञापन फिल्मों में काम किया। उन्होंने कई डाक्यूमेंट्री फिल्मों मसलन श्याम बेनेगल की ‘चाइल्ड ऑफ दि स्ट्रिप्स’ (1967), कुमार शाहनी की ‘ए सर्टेन चाइल्डहुड’ (1967), बी.डी. गर्ग की ‘अमृता शेरगिल’ (1968) और ‘महाबलीपुरम’ (1968) में काम किया। साथ ही उन्होंने कुमार शाहनी की फीचर फ़िल्म ‘द ग्लास पने’ (1966) में भी काम किया। उनकी प्रतिभा ने ही नये सिनेमा के फ़िल्मकारों का ध्यान आकर्षित किया। 

                ‘सारा आकाश’ बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित एक मात्र ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म थी। फ़िल्म की थीम निम्न मध्यवर्गीय परिवार के पति-पत्नी के साथ सामंजस्य ना बिठा पाने पर आधारित है। समर (राकेश पाण्डेय) अभी कॉलेज की पढाई पूरी भी नहीं कर पाया है कि उसके विरोध के बावजूद परिवार वाले उसका विवाह कर देते हैं। प्रभा (मधु चक्रवर्ती) बी.ए. तक पढ़ाई कर चुकी है। विवाह के बाद भी दोनों बातचीत नहीं कर पाते और संवादहीनता बढ़ती जाती है। समर दिवास्वप्न में जीता है। वह जीवन में जो करना चाहता है, जो होना चाहता है, वह कर नहीं पाता और इस सबके लिए, वह असमय हुए विवाह को दोष देता है। आर्थिक विसंगतियों के झंझावात में बेरोजगार युवावर्ग कमोबेश दिशाहीन हो चुका है। स्वातंत्रयोत्तर भारत में लगभग यह पूरे मध्यवर्ग की समस्या है जो कि विडम्बनापूर्ण जीवन को अभिशप्त बना देती है। बासु चटर्जी ने साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंधों को अपनी फिल्मों में एक नए आयाम के साथ विकसित किया, जो कि पूर्णतः शहरी मध्यवर्ग के पहचान की समस्या, आर्थिक व सामाजिक विसंगतियों से जुड़ी हुई थी।

                  बासु चटर्जी की फिल्मों पर ऋषिकेश मुखर्जी का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है, क्यूंकि उन्होंने भी फिल्मों के प्लाट के तौर पर शहरी मध्यवर्ग की जीवन शैली व स्पंदन का चुनाव किया। इससे पहले ऋषिकेश मुखर्जी ‘अनाड़ी’ (1959), ‘अनुराधा’ (1960), ‘अनुपमा’ (1966), ‘गबन’ (1966), ‘आशीर्वाद’ (1968) और ‘सत्यकाम’ (1969) जैसी सफल फ़िल्में बना चुके थे। बासु चटर्जी फिल्मों टेक्निकल रिचनेस के साथ-साथ साहित्यिक कथ्य के सिनेमाई  रूपांतरण को विशेष महत्व देते हैं। वैसे भी सिनेमा का अपना शिल्प अन्य कला-माध्यमों से भिन्न होता है, जरुरत इस बात की होती है कि साहित्यिक-उपादानों को उन कला-माध्यमों के साथ संयोजित किस प्रकार किया गया है और अंततः पर्दे पर उसका शिल्प कैसा बन पड़ा है। फ़िल्मकार छपे हुए टेक्स्ट को सिनेमाई-बिम्बों में प्रदर्शित करने में कहाँ तक सफल हुआ है। बासु चटर्जी की फ़िल्में और धारावाहिक सीरीज मसलन ‘रजनी’- जिसकी पटकथा प्रख्यात कथाकार मन्नू भंडारी ने लिखी (1985), ‘कक्का जी कहिन’- मनोहर श्याम जोशी के व्यंग ‘नेता जी कहिन’ पर आधारित (1988), और ‘व्योमकेश बख्शी’- बंगाली साहित्य में प्रसिद्ध डिटेक्टिव चरित्र शरदेंदु बंद्योपाध्याय पर आधारित (1993), को देखने से उनकी रेंज का पता चलता है। ‘सारा आकाश’ अभिनय, छायांकन, संगीत और ध्वनि की दृष्टियों से पहले की हिंदी फिल्मों से अलग पायदान पर अपनी महत्ता सिद्ध करती है। यह फ़िल्म पर्दे पर अभिव्यक्ति के विभिन्न उपादानों के साथ-साथ शब्द, ध्वनि, बिम्ब और शिल्प-विधान की दृष्टियों से एकमेक हो जाती है और अपनी अमिट उपस्थिति दर्ज कराती है।

                  दरअसल एक अच्छी फ़िल्म हमारे अंदर देखने का संस्कार पैदा करती है। सिनेमा के यथार्थ से हमारे अंदर जीवन के यथार्थ को एक नई दृष्टि से देखने का नजरिया विकसित होता है। यह दृष्टि किसी दर्शन से नहीं, अपितु फ़िल्म के उन छोटे-छोटे दृश्य-बंधों से उत्पन्न होती है। प्रत्येक दर्शक उसे एक नया अर्थ देता है। समानांतर सिनेमा के सन्दर्भ में सच कहें तो, ‘पाथेर पांचाली’ ने 1955 में ही एक नया मानदंड स्थापित कर दिया था कि भविष्य का सिनेमा कैसा होगा? समानांतर सिनेमा की इस परंपरा को सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, मणिकौल, बासु चटर्जी, अडूरगोपाल कृष्णन, कुमार शाहनी, गौतम घोष, अपर्णा सेन, एम.एस. सथ्यु, श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, सई परांजपे, केतन मेहता, जी. अरविंदन जैसे हस्ताक्षरों ने समृद्ध किया है। यह आंदोलन सामंती परिवेश की जड़ता को खत्म करने, स्त्री-अधिकारों की मुक्ति के प्रश्न और शोषितों-उत्पीड़ितों के सहज प्रतिरोध को उभारने में भारतीय समाज की मदद करता है। शायद इसी कारण से यह मूलतः साहित्य से अपने सृजनात्मक संबंधों के बिना पर एक अखिल भारतीय आंदोलन का स्वरूप अख्तियार कर पाया। 

                               

सन्दर्भ-
·         भारतीय कला का इतिहास- भगवतशरण उपाध्याय
·         साहित्य और संस्कृति- अमृत लाल नागर
·         सत्यजित राय का सिनेमा- चिदानंददास गुप्ता
·         हिंदी सिनेमा का समाजशास्त्र- जबरीमल्ल पारख
·         सिनेमा और संस्कृति- रही मासूम रजा
·         भारतीय सिनेमा का अंतःकरण- विनोददास
·         हिंदी सिनेमा का इतिहास- मनमोहन चड्ढा
·         सिनेमा नया सिनेमा- सुरेन्द्र नाथ तिवारी
·         सिनेमा नया सिनेमा- ब्रजेश्वर मदान
·         सिनेमा पढ़ने के तरीके- विष्णु खरे
·         What is Cinema- Andre Bazin (Volume-1)
·         Our Film Their Film- Satyajit Ray
·         The New Indian Cinema- Aruna Vasudev
·         How to Read a Film- James Monaco
·         Film and Fiction- Somdatta Mandal
पत्रिकाएं-
·         वर्तमान साहित्य- सदी का सिनेमा (संपादक- मृत्युंजय)
·         प्रगतिशील वसुधा- हिंदी सिनेमा बीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी तक (संपादक- प्रह्लाद अग्रवाल)
·         लमही (सिनेमा विशेषांक), संपादक- विजय राय
 
      

सिनेमा में स्क्रिप्ट सबसे अहम चीज़ है मेरे लिए

किसी फिल्म (शूल) का मुख्य किरदार (मनोज वाजपेयी) आपसे कहे कि फला किरदार (समर प्रताप सिंह) को निभाते समय अवसाद के कारण मुझे मनोचिकित्सक के प...