Wednesday, May 15, 2013



सागर सरहदी से बातचीत


सागर सरहदी से मैं इसके पहले कभी नहीं मिला था, लेकिन बतौर फ़िल्मकार मैं उन्हें ज़हनी तौर पर बहुत पसंद करता था... अब भी करता हूँ... जिन्होंने 'बाज़ार' देखी होगी, उन्हें सरहदी साहब के जूनून और सिनेमैटिक क्राफ्ट दोनों का अंदाज़ा बखूबी होगा... 'बाज़ार' के बारे में जब बात चली तो सरहदी साहब ने बिना किसी हीला-हवाली के स्वीकार किया कि इस फ़िल्म ने उन्हें बीस साल पाला है.. सागर सरहदी जितने अलहदा   फ़िल्मकार हैं, उतने ही खुबसूरत किस्सागो व इंसान भी हैं.. उनसे यह एक अनौपचारिक बातचीत का सिलसिला भर है, जिसे साक्षात्कार की शक्ल अख्तियार करने की कोशिश की गयी है.. बहरहाल सागर सरहदी  बम्बई में हुई गुफ़्तगू से मुखातिब होते हैं...!      

                                                  
     सिनेमा अपने वैशिष्टय में साहित्य से किस प्रकार भिन्न है?

सागर सरहदी- सिनेमा में सबसे पहले यह मान के चलना चाहिए कि यह विधा सबसे अलग है। राजेन्द्र सिंह बेदी ने एक बार कहा था कि 'जो सिनेमा है, वह short story के करीब है। साहित्य की जब बात होती है, तो उसमें नाटक भी आता है और नावेल भी आता है। इनसे हमें cinematic subject जरूर लेना चाहिए। लेकिन शुरू में हमें भी पता नहीं चला था। हम शुरू में बहुत मुतासिसर हुए थे, जब बेदी साहब ने कहा कि सिनेमा कहानी के बहुत करीब है, तो हमने कहा कि ये तो बहुत अच्छा मसला है, जिसमें पूरा subject ही आ जाता है, सिनेमा से सम्बनिधत क्योंकि तब मैं short story writerथा।

आप अपनी कहानियों के बारे में थोड़ा बतायें, जो आपने उस दौरान लिखी थी।

सागर सरहदी- मेरी कहानियों का एक संग्रह है 'जीव जनावर' जो हिन्दी में छपी है। आपको मिले तो पढ़ लीजिए। राजकमल ने छापा है... बाद में हमने पढ़ा सोचा। पहले सिनेमा के बाहर हम लोग फिल्में देखते थे। लेकिन जब जरूरत पड़ी, तो हम फिल्मों में आ गए और खुद लिखने लगे। बाद में पता चला कि इसका साहित्य से, शास्त्र से, नाटक से कोर्इ सम्बन्ध नहीं है। ये एक अजीब सी सेनिसबिलिटी थी, जिससे एक गंभीर सी चीज पैदा हो गयी है, जो पिछले दो सौ साल के अन्दर फैली है। ये मीडियम या ये जो विधा है, मैं इसको बोलता हूँ सबकांशस का मीडिया है। यानि जब आप कहानी या नावेल में लिख रहे हों कि 'शाम हो रही थी, वो गुजर रहा था, ये था, वो था तो आप दूर से महज इसका वर्णन कर रहे होते हैं। हम लोग उसका एक शाट लेंगे-जो शाम हो रही थी, उसमें सब कुछ रंग, रूप, सज्जा सब आ जाता है। दूसरी बात यह है कि जो लफ्ज हैं, वो सिनेमा में रूकावट डालते हैं। मुझे इसलिए साइन किया जाता है कि मैं अच्छे डायलाग लिखता हूँ और मैं यह सबसे बोलता हूँ कि ये सिनेमा में रूकावट डालते हैं। एक अच्छा डायलाग लिखना जो है, वह सिनेमा को रोकता है। सिनेमा के टोटली विजन को देखें, तो इस मुल्क में तीन तरह के लोग हैं- एक तो वे लोग जो सत्यजीत रे जैसे हैं, जो इतने बड़े हैं कि उनको बड़ा कहना भी बहुत कम है क्योंकि उनकी फिल्मों की सेनिसबिलिटी बहुत बड़ी है। इसलिए उन्होंने 'पथेर पांचाली या जितनी फिल्में बनायी हैं, वो एक से बढ़कर एक बनकर आयी हैं। दूसरी तरफ एक तरह का ये व्यावसायिक सिनेमा जिसमें सिर्फ डॉयलाग, प्लाटबाजी, सिम्पलीफिकेशन और इण्टरटेनमेण्ट पहले गाने से ही जैसे शुरू हो जायेगा, बिना किसी परपज के। वहाँ वो लड़की सुन रही है कि लड़का गा रहा है और लड़की गा रही है, तो लड़का सुन रहा है। दूसरे-तीसरे सीन में मुलाकात हो जाती है, तो शर्माते हैं, भागते हैं। इसमें कहीं कोर्इ भाव नहीं दिखता है। ये सारी प्लाटबाजी जो है, इससे सिनेमा का कोर्इ सम्बन्ध नहीं है। व्यावसायिक सिनेमा में इस तरह का सिम्पलीफिकेशन नहीं किया जाना चाहिए। हमारे व्यावसायिक सिनेमा में मैं समझता हूँ कि फिल्मालय शुरू में जब आया था, उसमें सुबोध मुखर्जी थे। वे क्या करते थे कि तेरह गाने पहले तैयार कर लेते थे, फिर राइटर को बोलते थे किे situation को जोड़ो और इस प्रकार वे फिल्म बनाते थे। उसमें ज्यादातर शम्मी कपूर हीरो हुआ करते थे और उनको उन दिनों रिबेल स्टार माना जाता था। वे क्या रिबेल करते थे, ये आज तक समझ में नहीं आया।

साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंध पर आप क्या सोचते हैं?

सागर सरहदी- मैं समझता हूँ, दुश्मन हैं एक दूसरे के। ये और बात है कि किसी ने एक नावेल पर अच्छी फिल्म बनायी। कर्इ लोगों ने शेक्सपीपर के नाटकों को लेकर अच्छी फिल्में बनायी हैं लेकिन वो केवल स्टडी के लिए रह गयी हैं।

यानि आपके कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य में सिनेमा का हस्तक्षेप और सिनेमा में साहित्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

सागर सरहदी- नहीं हस्तक्षेप की बात नहीं है। क्या है कि अगर मेरा बैकग्राउण्ड साहित्य का है, जैसे मैं नाटकार हूँ, तो मैं जो फिल्में बनाऊँगा उसमें कुछ अच्छी बातें कह सकता हूँ। क्योंकि मेरा इतना बड़ा एक्सपीरिएंश है, दुनिया के लगभग सारे नाटक पढ़े हुए हैं। बेसिकली आपके अंदर अगर इतना रचाव-बसाव है कि जिसमें संगीत, साहित्य रोमांस और जिन्दगी का एक्सपीरिएंश है, तो आप निशिचत तौर पर एक बेहतर फिल्म बना सकते हैं। आप उसे काट नहीं सकते, अलग नहीं कर सकते।

बतौर सागर सरहदी यदि किसी साहित्यिक विधा पर फिल्म बनाते हैं, तो उसकी रचना प्रक्रिया क्या होगी ?

सागर सरहदी- तो वो अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। अगर किसी आदमी के वश में इतनी बड़ी बात हो और उसके vision में आये कि मैं इस पर एक out standing फ़िल्म बना सकता हूँ तथा वह उसके अन्दर यदि बनाता है, तो साहित्य और सिनेमा के लिए इससे सुखद बात और क्या हो सकती है। इसमें सबसे पहले रूपांतर करना पड़ेगा। cinematic language ढूंढनी पड़ेगी। लेकिन इस पर फिर मेरा वही जवाब है कि बहुत कम होता है ऐसा।

इस पूरी प्रक्रिया की समस्याएं क्या हो सकती हैं?

सागर सरहदी- इस माध्यम की सबसे बुरी बात यह है कि फिल्मकार साहित्य से बहुत ज्यादा एक्सेपोज न हों। इसके बाद इस प्रक्रिया में सबसे पहले प्लाट आयेगा... तो हमको पता है कि आगे जाकर प्लाट डेवलप करने में साहित्य रोकता है सिनेमा को। सिनेमा का जो बहाव है अपना, उसमें रूकावट डालता है साहित्य। दूसरे यह है कि साहित्य का जो translation है , वह ठीक तरीके से हो नहीं पाता है। इसमें हिरो-हीरोइन मिलते हैं, उसका बाप देखता है, तो इसको हम सिनेमा नहीं मानते। इसके बावजूद यदि कोर्इ बड़ा डायरेक्टर अच्छे नाटक पर या नावेल पर सिनेमार्इ रूपांतरण को महसूस करता है, कि वो इस पर फिल्म बना सकता है, तो यह बहुत अच्छी बात है। दुनिया में मैं समझता हूँ कि एक ही ऐसे स्वीडिश डायरेक्टर बर्गमैन थे, जो नाटक भी करते थे, सिनेमा भी बनाते थे, तो उनकी फिल्मों में नाटक के रूप में जो सिनेमा पर्दे पर आता था, वो बहुत अच्छा माना गया। उनके अन्दर सिनेमा और नाटक का रचाव-बसाव इतनी गहरार्इ से जुड़ा हुआ था कि उनकी जो क्वालिटिज थीं, वह सिनेमा में आती गयीं।

सिनेमा के शुरूआती दौर में साहित्य से इसका गहरा लगाव था, जबकि समकालीन सन्दर्भो में ऐसा नहीं है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

सागर सरहदी- सर्वप्रथम इसमें जो तब्दीलियाँ आयी हैं, उसका कारण है व्यावसायिक मानसिकता। इस पूरे रचनाकर्म को व्यवसाय का रूप दे दिया गया है। हम यह बात तो मानते हैं कि इस पर पैसा खर्च किया गया होता है, तो वह पैसा वापस भी आना चाहिए। यह तो एक रियलिटी है। जहाँ तक मैं समझता हूँ कि जब भी किसी ने अच्छी फिल्म बनायी है, तो वह चलती भी है। उसमें पैसा वापस आता है। लेकिन अगर उसको आप बिजनेस की तरह ट्रीट करेंगे तो यह गलत है। अगर इसको मानें कि हमने इसमें इतना करोड़ खर्च किया और हमारा table प्राफिट इतना होना चाहिए, यह जो दृषिटकोण सिनेमा के अन्दर विकसित हुआ है, यह जो तब्दीली है, यह एक जेनरेशन है सिनेमा की। तो उसमें सेनिसबिल्टी कहाँ से आयेगी? जैसे मैं एक बात कहते-कहते रह गया कि सुबोध मुखर्जी जब तेरह गाने इकटठा कर लेते थे और कहानी बाद में जोड़ते थे तो वे कहानी को अहमियत ही नहीं देते थे। बलिक वो क्या करते थे कि किसी कहानीकार को बुलाकर के टेबल पर जुता रख देते थे, उसके मुँह के सामने और आँखे बन्द कर लेते थे। किसी रायटर ने उनसे कहा कि आप तो सो रहे हैं। उनके जवाब में सुबोध मुखर्जी ने कहा कि आप की कहानी में इतनी शक्ति  हो, जो मुझे झकझोर दे। अब ये जो बाते हैं, वाहियात किस्म की बातें  हैं। वर्तमान समय में जो फिल्में बन रहीं हैं, जैसे 'टशन जैसी फिल्में हैं, या 'चाँदनी चौक टू चायना जैसी फिल्में हैं...मतलब ये क्या है? ये जो फिल्में आयी हैं, यह entertainment के  नाम पर या व्यवसाय के नाम पर दर्शकों को लूट रही हैं। सिनेमा पर बाजार बहुत हावी है। बाजार अपनी कंडीशन रखता है। सारी गड़बड़ इसमें है।

जी बहत-बहुत धन्यवाद।

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