Monday, May 27, 2013

बारिशों के दिन



मेरी नज़्म

मेरे राज़दां
तेरे रुखसार पर
वो नन्हा सा तिल
कभी-कभी
नींद से जगने के बाद भी
मेरे ज़ेहन में
चिपका -सा रह जाता है

तिस पर भी
तुम
चुप क्यूँ हो
बोलो...!!
तुम ही कुछ कहो...!!

जिससे ख़ामोशी का तिलिस्म तो टूटे
सहमे हुए ख्वाबों को
इस बियाबां से निकलने की
कोई सूरत तो नज़र आये

न जाने कहाँ...
सारी हसरतों को
इसने नीलाम सा कर दिया है

लगता है की सब कुछ
खत्म हो रहा है
धीरे-धीरे

और हम लगातार
चुकते से जा रहे हैं
इस बुरे दौर में

लहू की आखिरी बूँद निचुड़ने में
जैसे अब कुछ ही पल शेष हों

ऐसे वक्त में तुम्हारे दो शब्द
शायद उन कुछ पलों के लिए ही सही
जीने की वजह में
तब्दील हो जाएँ...

आमीन...!!




*अक्सर तुम्हारे बारे में सोचता रहता हूँ... तुरंत लिखी गयी कुछ अनबुझ सी पंक्तियाँ न जाने क्यूँ

!!...लग रहा है, नज़्म की शक्ल अख्तियार कर गयीं, सो लगा की तुमसे मुखातिब कराया ज







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