Wednesday, May 15, 2013

एम.एस. सथ्यू से बातचीत

एम.एस. सत्थ्यु की 'गर्म हवा' से परिचय उन्नीसवें साल की गर्मियों में हुआ, वो भी तब जब किसी काम से फैज़ाबाद जाना हुआ था... होटल में बेहाल इधर-उधर घूम रहा था..जब न रहा गया तो सोचा क्यूँ न गुस्सा टी.वी. पर ही उतारा जाये.. और चैनल बदलने लगा, अचानक दूरदर्शन पर नज़र थम गयी..!! गर्म हवा दिखाई जा रही थी..  'गर्म हवा' सेल्युलाइड पर भारत के नक्शे में तकसीम और बदलाव की दुःखभरी दास्तान का छायांकन भर नहीं है, बल्कि सांप्रदायिक दंगों का इस्पाती दस्तावेज़ है, जिसे सत्थ्यु साहब ने तमाम वर्जनाओं के बीच एक नया अर्थविस्तार दिया.. खैर..!! अपने शोध के सिलसिले में यह अधूरी बातचीत उनसे नागपुर में की गयी और बहुत ही कम समय में साहित्य के सिनेमाई रूपांतरण की प्रक्रिया पर उनसे संवाद हो पाया..बहरहाल पूरी बातचीत विस्तार से फिर कभी पोस्ट करेंगे...!!



सिनेमा बनाते समय आपको इन्सपिरेशन कहाँ से मिलता है? साहित्य से या किसी और माध्यम से?

एम.एस. सथ्यू- साहित्य से ही हमें इन्सपिरेशन नहीं मिलता। ओरिजनली हमें कहीं और से भी मिल सकता है। हम जिससे स्क्रीन प्ले लिख सकते हैं तो अलग-अलग तरीके हैं इसके।

पहले अधिकांशत: फिल्में साहितियक विधाओं पर आधारित होती थीं, जबकि वर्तमान समय में स्थितियां  बदली हैं। इस बदलाव को आप किस प्रकार देखते हैं?

एम.एस. सथ्यू- अच्छी बात है। सिर्फ साहित्य से ही क्यों इन्सपायर हों। साहित्य को रिइन्टरप्रेट करना एक किस्म की फिल्म हो सकती है, पर ओरिजनली आप किसी भी विषय पर फिल्म बना सकते हैं। शायद उस सब्जेक्ट पर कोर्इ उपन्यास ही न हो।

जब आप किसी साहितियक विधा पर फिल्म बनाते हैं, तो क्या आप उस कहानीकार या उपन्यासकार से भी इन्टरैक्ट करते हैं?

एम.एस. सथ्यू- कभी-कभी अगर वो जिन्दा हों तो  (हँसते हैं) अगर वो मर गये हों तो मैं कहाँ से, किससे बात करूँगा। बहुत सी ऐसी कहानियाँ हैं, वो लोग ही नहीं हैं।

वर्तमान समय में जो सिनेमा बन रहा है, उस पर बाजार का काफी दबाव है, इसे आप अच्छा मानते हैं?

एम. एस. सथ्यू- ये तो शुरू से ही ऐसा है। बगैर मार्केट के कोर्इ फिल्म नहीं  बनती है। मार्केट जरूरी है। अगर हम मार्केट के बारे में नहीं सोचते हैं, तो कोर्इ फिल्म नहीं बना सकते। हाँ मार्केट की वजह से ही अगर कोर्इ फिल्म बनाता है तो यह ठीक नहीं। आज पैसे कमाने के लिए बहुत से लोग फिल्म बनाते हैं, तो वो बहुत ही ऊपर-ऊपर की बात होती है, गहरार्इ की कोर्इ बात नहीं होती है उसमें।

भारतीय सिनेमा और पाश्चात्य सिनेमा में साहित्य का हस्तक्षेप किस प्रकार हुआ?

एम. एस सथ्यू- देखिए अभी वेस्टर्न सिनेमा में 'वार एण्ड पीस टाल्सटाय का ले लीजिए, इस पर बहुत अच्छी फिल्में बनी हैं। या स्टीव बेख्त की फिल्में बनी हैं। एलिया कजान जैसे लीक से हटकर फिल्में बनाते हैं और टेनीजी विलियम्स जिन्होंने बहुत से ड्रामे लिखे हैं।

रसिकन बाण्ड की कहानियों पर भी काफी फिल्में बनी हैं...

एम. एस सथ्यू- जी हाँ, इस तरह... वो तो एक दौर था, जहाँ वो बना सकते थे। दूसरा दौर है आज का, जिसमें किसी न्यूज पेपर में आप कोर्इ आर्टीकल देखते हैं, उसके ऊपर एक फिल्म बन सकती है। इन्सपिरेशन तो कहीं से भी आपको मिल सकता है। आप खुद सोच सकते हैं। या आप खुद एक कहानी गढ़ सकते हैं, इसमें क्या है।

भारतीय सिनेमा अभी तक वैश्विक स्तर पर अपनी कोर्इ अलग पहचान क्यों नहीं बना पाया है, जबकि हालीवुड के बाद यह विश्व की दूसरी सबसे बड़ी फिल्म इण्डस्ट्री है। ऐसा क्यों। क्यों इसे अभी तक आस्कर के लिए लम्बा इन्तजार करना पड़ रहा है।

एम. एस. सथ्यू- अच्छा है। नहीं मिले तो। आस्कर को लोग हमारे यहाँ बहुत मान्यता देते हैं। हमारी समझ में नहीं आ रही है यह बात। जबकि आस्कर कोर्इ बहुत बड़ी चीज नहीं है।

आपने 74 में 'गर्म हवा बनायी थी। आज वैसी फिल्में क्यों नहीं बन रही हैं ?

एम. एस. सथ्यू- वो तो उन लोगों से पूछिये, जो लोग सिनेमा बना रहे हैं , (हँसते हैं) वो एक दौर था।

वर्तमान समय में आप किस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं? 

एम. एस. सथ्यू- एक नर्इ फिल्म बनी है। रिलीज होने वाली है। उसका फाइनल स्टेज कुछ टेक्नालाजी की वजह से जिसमें अभी डाल्बी साउण्ड आ गया है, तो उसमें थोड़ा समय लग रहा है।

फिल्म का नाम ?

एम. एस. सथ्यू- 'इज्जोरू 'ये फिल्म कैनेडियन लैंग्वेज में है।

कलात्मक फिल्मों के बारे में आपकी क्या राय है?

एम. एस. सथ्यू- कोर्इ आर्ट फिल्म नहीं होती है। अच्छी फिल्में होती हैं, बुरी फिल्में होती हैं बस। कोर्इ आर्ट वार्ट के चक्कर में मत पडि़ये। कोर्इ आर्ट सिनेमा करके कहीं नहीं होती हैं। दुनिया में ही नहीं है वो।

जी बहुत-बहुत धन्यवाद!

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